भावार्थ- विसमिल्ला तो रहम-दया भाव रखने वाले स्वयं विष्णु अवतारी राम ही है। उनका मार्ग तो तुम्हारे से भिन्न ही था। वर्तमान में तुमने जो जीव हत्या का मार्ग अपना रखा है यह तुम्हारा मनमुखी है। उनको बदनाम मत करो।
तो भेटिलो रहमान रहीम, करीम काया दिल करणी।
सभी पर रहम करने वाले श्री राम एवं गोपालक श्री कृष्ण को दिल रूपी हृदय गुहा में स्थिर करके फिर कोई शुभ कार्य करोगे तभी तुम्हारा कार्य सुफल होगा। उस रहीम से भेंट मिलन भी हो सकेगा।
शुभ कर्तव्य कर्म करना ही कलमा रखना है और प्रतिज्ञा निभाना ही कुराण पढ़ना है तथा यही पीर पैगम्बरों का आदेश है। जो व्यक्ति अपने ही अन्तःकरण में छिपे हुऐ अवगुणों को खोजकर उनको बाहर निकाल देता है एवं शुद्ध पवित्र हो जाता है वही सच्चा मुसलमान है तथा वही दरवेश है।
पीरां पुरूषां जमी मुसल्ला, कर्तब लेक सलामों।
पीर पुरूष और सभी एकत्रित हुए मुसलमानों आप लोग आपस में एक दूसरे के प्रति सलाम कहते हो यह भी तुम्हारी सलाम व्यर्थ ही है क्योंकि जब तक नेक कमाई नहीं करोगे तब तक तुम्हारा कभी भी कोई भी कार्य सिद्ध नहीं हो सकता है। कथनी और करनी में एकता ही जीवन में सुख का मूल है। वास्तविक सलाम तो नेक कमाई है।
हम दिल लिल्ला तुम दिल लिल्ला, रहम करे रहमाणों।
हमारे दिल में वह लीलाधारी परमेश्वर है और तुम्हारे दिल में भी वही विराजमान है क्योंकि वह रहम करने वालों में सर्वश्रेष्ठ है। अर्थात् जो एक हिन्दू महात्मा को मानव शरीर दिया है उसी ने ही मुसलमान को भी वही अमूल्य मानव चोला दिया है तथा स्वयं ही उसमें प्रवेश भी हुआ है।
इतने मिसले चालो मीयां, तो पावो भिस्त इमाणों।
हे मियां! ऊपर बताये हुए मार्ग नियमों पर चलोगे तो भिस्त स्वर्ग प्राप्त कर सकते हो। जिस की प्राप्ति के लिये दिन-रात प्रयत्न शील दिखाई देते हो।
भावार्थ- यदि तुम्हारे दिल शुद्ध सात्विक विकार रहित है तो तुम्हारे काबे का हजा नजदीक ही है अर्थात् हृदय ही तुम्हारा काबै का हज है तो फिर क्यों मकानों की दिवारों पर चढ़कर ऊंची आवाज से उस अल्ला की पुकार करते हो, यह तुम्हारी बेहूदी उलबंग तुम्हारा अल्ला नहीं सुन सकेगा क्योंकि वह अल्ला तो तुम्हारे दिल में ही है।
भाई नाऊ बलद पियारो, ताकै गलै करद क्यूं सारों।
अपने प्रियजन भाई से भी हल चलाने वाला बैल प्रिय होता है, भाई मौके पर कभी भी जबाब दे सकता है किन्तु वह भोला-भाला बैल कभी भी संकट की घड़ी में जबाब नहीं देगा। आप लोग महा मूर्ख हो जो उस बैल के गले पर भी करद चलाते हो, यदि आप लोग जरा भी सोच-समझ रखते हो तो फिर ऐसा क्यों करते हो।
बिन चीन्है खुदाय बिबरजत, केहा मुसलमानों।
तुम लोगों ने ईश्वर को तो पहचाना नहीं है। उस खुदा ने भी तो जीव हत्या करना मना किया है फिर भी जीव हत्या करते हो, तो तुम सच्चे मुसलमान कैसे हो सकते हो। शिष्य यदि गुरु का कहना नहीं माने तो फिर कैसा गुरु और कैसा शिष्य।
काफर मुकर होकर राह गुमायो, जोय जोय गाफिल करें धिंगाणों।
अपने गुरु के वचनों को छोड़कर आप लोग वास्तव में काफिर-नास्तिक हो चुके हो और अपने पथ से भ्रष्ट होकर जबरदस्ती करते हो। वास्तव में अपने मार्ग का पता तो तुम्हें है किन्तु जानते हुऐ भी अनजान बनकर पाप कर्म करने में प्रवृत हो गये, यही तुम्हारी जबरदस्ती है।
ज्यूं थे पश्चिम दिशा उलबंग पुकारो, भल जे यो चिन्हों रहमाणों।
जिस प्रकार से आप लोग पश्चिम दिशा की ओर मुख करके बड़े जोर से हेला(आवाज) मारते हो ठीक उसी प्रकार से यदि उस दया-ज्ञान सिन्धु रहम करने वाले परमेश्वर को सच्चे दिल से याद करो तो तुम्हारा भला होना निश्चित ही है।
तो रूह चलंते पिण्ड पड़ंतै, आवै भिस्त विमाणों।
यदि आप लोग सच्चे मन से नमाज की तरह ही परमात्मा का स्मरण करो तो जब यह आत्मा शरीर से विलग हो जायेगी यह शरीर गिर जायेगा, उस समय स्वर्ग से विमान तुम्हारे लिये अवश्य ही आयेगा।
चढ़ चढ़ भींते मड़ी मसीते, क्या उलबंग पुकारो।
बीना सच्चाई के तो केवल भींत, मेड़ी , मस्जिद आदि पर चढ़कर पुकार करने से कोई लाभ नहीं कभी स्वर्ग की आशा नहीं करना।
कांहे काजै गऊ विणासै, तो करीम गऊ क्यूं चारी।
भगवान श्री कृष्ण ने गऊवें चराई थी यदि गउवों को मारना ही इष्ट होता तो वे समर्थ पुरूष कभी भी गउवें नहीं चराते। अब तक तो यहां संसार में एक भी गऊ जीवित नहीं होती तो फिर तुम लोग क्यों गउवों का विनाश करते हो।
यदि तुम लोग गऊवों का विनाश करना ठीक मानते हो तो फिर उनका अमृतमय दूध, दही, घी , मेवा आदि क्यों ग्रहण करते हो? इन वस्तुओं से सदा परहेज रखो और यदि घी, दूध आदि ग्रहण करते हो तो फिर उनके हाड़, मांस, रक्त और जीव को क्यों खा जाते हो? यह तुम्हारा न्याय नहीं हो सकता।
सुणरे काजी सुणरे मुल्ला, यामै कोण भया मुरदारूं।
रे काजी, रे मुल्ला! ध्यानपूर्वक सुनों! इसमें मुर्दा कौन हुआ? मारने वाला या मरने वाला? यहां तो ऐसा ही लगता है कि मुर्दे को खाने वाला ही मुर्दा(मृत) है। जो मर चुका है वह तो नया शरीर धारण कर ही लेगा, किन्तु मरे हुऐ को खाने वाला तो रोज मुर्दा-मृत होता है अर्थात् तुम लोग सभी मुर्दे हो।
जीवां ऊपर जोर करीजै, अंत काल होयसी भारूं।
इस समय यदि जीवों पर जोर जबरदस्ती करते हो तो अन्त समय में तुम्हारे लिये मुश्किल पैदा हो जायेगी। तुम्हारा यह जीवन मूल ही नष्ट हो जायेगा।
भावार्थ- भावार्थ-बकरी आदि निरीह जीवों की हत्या करने वाले कसाई रूपी काजी, , मुल्ला तुम लोग मेरी बात को ध्यान पूर्वक श्रवण करो।
किणरी थरपी छाली रोसो, किणरी गाडर गाई।
किस महापुरूष पैगम्बर ने यह विध्धान बनाया है कि तुम काजी मुल्ला मुसलमान या हिन्दू मिलकर या अलग-अलग इन बेचारी भेड़-बकरी और माता तुल्य गऊ के गले पर छुरी चलावो अर्थात् ऐसा विधान किसी ने नहीं बनाया तुम मनमुखी हो तथा अपना दोष छिपाने के लिये किसी महापुरूष को बदनाम मत करो।
सूल चुभीजै करक दुहैली, तो है है जायों जीव न घाई।
यदि तुम्हारे शरीर में कांटा चुभ जाता है तो भी दर्द असह्य हो जाता है फिर बेचारे जन्मे जीव ये भी तो शरीर ध्धारी है इनके गले पर छुरी चलाते हो कितना कष्ट होता है। सभी प्राणी जीना चाहते है मृत्यु भयंकर है, , उस दुखदायी अवस्था में इन मूक प्राणियों को आप पहुंचा देते है इससे बढ़कर और क्या कष्ट होगा, यही बड़े दुख की बात है।
थे तुरकी छुरकी भिस्ती दावों, खायबा खाज अखाजूं।
आप लोग मुसलमान है और हाथ में छुरी रखते है तथा अखाद्य मांस आदि का खाना खाते है फिर भी स्वर्ग में जाने का दावा करते है, यह असंभव है।
चर फिर आवै सहज दुहावै, तिसका खीर हलाली।
जो गऊ, भेड़, बकरी आदि वन में घास चरकर आती है और स्वाभाविक रूप से अमृत तुल्य दूध्ध देती है और उस दूध्ध से खीर, घी, दही आदि बनते है वह तो तुम्हारी हक की कमाई है किन्तु-
जिसके गले करद क्यूं सारो, थे पढ़ सुण रहिया खाली।
अन्याय द्वारा उन पर करद की मार क्यों करते हो, , आप लोग कुरान आदि पढ़-सुन कर भी खाली ही रह गये, कुछ भी नहीं समझ सके।
ॐ हिन्दू होय कै हरि क्यूं न जंप्यों, कांय दहदिश दिल पसरायों।
भावार्थ- हिन्दू होने का अर्थ है कि भगवान विष्णु से सम्बन्ध स्थापित करना। विष्णु निर्दिष्ट मार्ग का अनुसरण करना तथा विष्णु परमात्मा का अनुमान करना, तथा विष्णु परमात्मा का स्मरण करना। यदि हिन्दू होय कर यह कर्तव्य तो किया नहीं और मन इन्द्रीयों को दसों दिशाओं में भटकाते रहे तो फिर तुम कैसे हिन्दू हो सकते थे।
सोम अमावस आदितवारी, कांय काटी बन रायों।
आप लोग हिन्दू होकर भी चन्द्रमा के रहते, अमावस्या के समय तथा सूर्यदेव के समक्ष हरे वृक्षों को काटते हो तो तुम कैसे हिन्दू हो सकते हो? अर्थात् किसी भी समय हरे वृक्ष नहीं काटने चाहिए। ये जीवधारी होते हुए मानव आदि के लिए बहुत ही उपयोगी हैं। सम्पूर्ण समय में सोम-चन्द्रमा, अमावस तथा आदित्य-सूर्य ये तीनों उपस्थित रहेंगे ही। दिन में सूर्य रात्री में चन्द्रमा तथा अन्धेरी रात्रि में अमावया रहेगी। इन तीनों के बिना तो समय की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इसलिए हरे वृक्ष नहीं काटना चाहिए, सदा ही वर्जनीय है।
गहरण गहंते बहण बहंतै, निर्जल ग्यारस मूल बहंतै।
कांयरे मुरखा तैं पांलंग सेज निहाल बिछाई।
सूर्य चन्द्र ग्रहण के समय में, प्रातः सायं संध्या के समय में ;उस समय वेणा अर्थात् कूवें तालाब से जल लानें की बेला मेंद्ध निर्जला ग्यारस में तथा मूल नक्षत्र में ;यह नक्षत्र अनिष्टकारी होता है | हे मूर्ख! ऐसे समय में तुमने सुन्दर पलंग बिछा कर सांसारिक सुख के लिए प्रयत्नशील रहा। इन समय में गर्भाधान से होने वाली संतान शारीरिक, मानसिक, बौह्कि रूप से स्वस्थ पैदा नहीं होगी, दुष्ट स्वभाव जनित विकृत ही होगी।
जा दिन तेरे होम जाप न तप न किरिया, जान कै भागी कपिला गाई।
उन ग्रहणादि दिनों में तेरे को हवन, जप, तप, शुद्ध आचारादि क्रिया, शुभ कर्म करने चाहिए थे किन्तु ये कर्म तो तूने किए नहीं तो जान- समझ कर के भी घर में ही आयी हुई कामधेनु को तुमने भगा दिया।
कूड, तणों जे करतब कियो, ना तैं लाव न सायों।
इस समय में इस संसार में रह कर, झूठ बोलकर, कपटपूर्ण कर्तव्य किया,न तो उसमें कुछ लाभ हुआ और न ही अच्छा कहा जा सकता है। सत्य प्रिय हित कर वचनों की परवाह न कर के तूने अपने जीवन को नीचे धकेल दिया है।
भूला प्राणी आल बखाणी, न जंप्यों सुर रायों।
हे भूले हुए हिन्दू प्राणी! तूने यथार्थ की बात तो कभी नहीं कही, तथा वैसे ही व्यर्थ की आल-बाल बातें बकता रहा किन्तु देवाधिदेव विष्णु हरि का जप नहीं किया।
छंदै का तो बहुता भावै, खरतर को पतियायों।
स्वकीय प्रशंसा परक तथा परकीय निंदा परक बातें तो तुझे बहुत ही अच्छी लगी और किसी साहसी जन ने सच्ची यथार्थ बात तुम्हारी तथा परायी कही तो वह तुम्हें अच्छी नहीं लगी, उस पर तुमने विश्वास तक नहीं किया क्योंकि तुम्हें अपनी प्रशंसा और दूसरों की बुराई में ही आनन्द आता है।
हिव की बेला हिव न जाग्यों, शंक रह्यो कदरायों।
अनायास ही प्राप्त इस अमूल्य समय में ह्रदय को जगाया नहीं क्योंकि ह्रदय में ही तो जीव चेतन रहता है, वह तो वचनों द्वारा जगाया जा सकता है। यदा कदा किसी ने जगाने की चेष्टा भी की तो झट से तूने शंका खड़ी कर दी। जिसे तुम्हारी शंका कभी निर्मूल नहीं हो सकी और न ही जाग सका, उल्टा अभिमान के वशीभूत हो गया।
ठाढ़ी बेला ठार न जाग्यों, ताती बेला तायों।
सूर्यास्त की बेला ठण्डी होती है उसी प्रकार से मानव की वृद्धावस्था भी ठण्डी बेला ही है, क्योंकि शरीर प्रायः ठण्डा ही होता है। धीरे-धीरे समय आने पर बचा-खुचा तेज भी गमन कर जाता है, तब हम उसे मृत कहते हैं। जवानी अवस्था तो दुपहरी के सूर्य के समान गर्म बेला है। हे प्राणी! वृद्धावस्था में तो ठण्डा हो जाएगा, शक्ति क्षीण हो जाएगी। कुछ कर नहीं सकेगा और युवावथा में तो गर्मी के जोश में तैने कुछ ऐसा कार्य किया ही नहीं जो पार उतार दें यदि चाहता तो कर सकता था।
बिंबै बेला विष्णु न जंप्यो, ताछै का चीन्हौं कछु कमायो।
बाल्यावस्था तो उगते हुए सूर्य की भांति अति सुन्दर निर्दोष तथा मनमोहक है व तो बिम्बै बेला है, इसमें तो सचेत होना भी कठिन है क्योंकि जब तक ना समझ है। हे प्राणी! तूने इन तीनों अवस्थाओं में ही भगवान का भजन नहीं किया तो फिर किसकी पहचान की और क्या कमाई की अर्थात् यह जीवन व्यर्थ ही गंवा दिया।
अति आलस भोलावै भूला, न चीन्हों सुररायो।
आलस्य ही मानव का महान शत्रु है। हे प्राणी! अति आलस में पड़कर न तो तुमने स्वयं कुछ कल्याणकारी कार्य किया और न ही किसी और करने दिया। स्वयं तो भूल में रहा और दूसरों को भी भूल में डालता रहा। देवपति भगवान विष्णु का स्मरण- ध्यान नहीं किया तो यही जीवन में भूल की है।
पार ब्रह्या की सुध न जाणी, तो नागे जोग न पायों।
जब तक परब्रह्रा की सुधी नहीं जान सकता तब तक नंगे रहने से या धूणी धूकाने से अथवा भभूत लमाने से कोई योगी या हिन्दू नहीं हो सकता।
परशुराम के अर्थ न मूवा, ताकी निश्चै सरी न कायों।
परशुराम जी भगवान विष्णु के ही अवतार थे, उन्होंने इस संसार में अनेकानेक आश्चर्यजनक कार्य किए थे। अपने जीवन काल में ब्राह्रणत्व और क्षत्रियत्व दोनों धर्मों को एक साथ पूर्णता से निभाया। संसार में आयी हुई विपत्ति का विनाश कर के सद्मार्ग प्रशस्त किया यदि इस समय उनके मार्ग पर चल कर कोई व्यक्ति अपने प्राणों का बलिदान देता है तो उसी का ही जीवन सफल है और जो तपस्यामय कठोर मार्ग से घबराता है उसका कार्य निश्चित ही सफल नहीं हो सकेगा। इसलिए हे पुरोहित! हिन्दू तो वही है जो हिन्दू धर्म को धारण करता है, केवल नाम मात्र से कुछ भी नहीं होता।
श्री गुरु जम्भेश्वर शब्दवाणी (शब्द 67) || Shri Guru Jambheshwar Shabdvani (Shabd 67) || Bishnoism
सबद-67 (शुक्ल हंस)
ओ३म श्री गढ़ आल मोत पुर पाटण भुंय नागोरी,म्हे ऊंडे नीरे अवतार लीयो।
सरलार्थ:
संसार के सभी गढ़ों में भगवान विष्णु का धाम वैकुण्ठ लोक सर्वश्रेष्ठ गढ़ है। उसी श्री गढ़ से आल-हाल चल करके इस मृत्यु लोक में आया हूं तथा इस मृत्युलोक में भी नागौर की भूमि में स्थित पींपासर में जो भूमि ग्रामपति लोहट पंवार क्षत्रिय के अधिकार में है यह उतम भूमि है जहां पर अत्यधिक गहराई में जल मिलता है। उस उत्तम जल वाले देश में मैने अवतार लिया है। अर्थात् उस परम धाम को अकस्मात छोड़कर इस भूमि में मुझे आना पड़ा है। आगे यहां पर आने का मुख्य कारण बतला रहे है।
जो पुरूष पाखण्ड करके दूसरों को ठगते है, किन्तु स्वयं किसी अन्य से नहीं ठगे जा सकते ऐसे ऐसे चतुर लोगों को ठगने के लिये अर्थात् उनकी ठग-पाखण्ड विद्या हरण करने के लिये, जिसने अब तक धर्म का दाग-चिह्न विशेष धारण नहीं किया है उन्हें धर्म के चिह्न से चिह्नित करके सद्मार्ग में लाने के लिये, जो दूसरों के तो सच्चे धर्म का भी अपनी बुद्धि चातुर्य से खण्डन कर देते है तथा अपने झूठे पाखण्डमय धर्म मार्ग को भी अपने स्वार्थ वश सत्य बतलाते है ऐसे लोगों का विश्वास नाश करने के लिये, उद्दण्डता से अपनी इच्छानुसार विचरण करने वाले लोगों के मर्यादा रूपी नाथ डालने के लिये और अभिमान में जकड़े हुऐ लोग जो किसी के सामने सिर झुकाना नहीं जानते| नम्रता, शीलता नहीं जानते उन्हें झुकाने के लिये नम्रशील बनाने के लिये मैं यहां मरू भूमि में आया हूं।
कांहि को मैं खैंकाल कीयों, कांही सुरग मुरादे देसां, कांही दौरे दीयूं।
यहां पर आकर मैने किसी को तो समय समय पर नष्ट ही कर दिया अर्थात् कृष्ण नृसिंह आदि रूप में तो दुष्टों को नष्ट ही किया तथा किसी सज्जन ज्ञानी ध्यानी भक्त पुरूष को तो उसकी इच्छा व कर्मानुसार स्वर्ग या मोक्ष की प्राप्ति करवाई। यह इस समय भी तथा इससे पूर्व अवतारों में भी और अन्य किसी को भयंकर नरक भी दिया क्योंकि उन लोगों के कर्म ही ऐसे ही थे। इसलिये कर्म करना मानव के अधीन है। किन्तु फल देना ईश्वर के अधीन है।
होम करीलो दिन ठाविलो, सहस रचीलो, छापर नीबी दूणपूरूं।
हे वीदा! तूं अपने आदमियों को दिन निश्चित करके जहां जहां पर भेजेगा मैं वहीं हजारों रूप धारण करके यज्ञ करता हुआ दिखाई दूंगा। बीदा हजारों जगहों पर तो नहीं भेज सका किन्तु जहां जहां पर भेजा गया था वहां वहां पर बतलाते है। जैसे छापर, नीबी, द्रोणपुर, सुन्दरियो, चीलो बालदियो, छन्दे, मन्दे बालदियो
गढ़ दिल्ली कंचन अर दुणायर, फिर फिर दुनिया परखे लीयो। थटे भवणिया अरू गुजरात, आछो जांई सवा लाख मालवै। पर्वत मांडू मांही ज्ञान कथूं।
दिल्ली गढ़,कंचन नगरी और देहरादून आदि स्थानों में यज्ञ किया है मैने वहां व्यापक भ्रमण किया है और लोगों को जांचा-परखा है तथा थट्ट, बांभणियां, गुजरात,आछो जाई, श्यालक , मालवा, पर्वत, मांडू, जैसलमेर इत्यादि स्थानों में जाकर ज्ञान का कथन किया। उन लोगों को चेताया है। ,,
खुरासाण गढ़ लंका भीतर, गूगल खेऊं पैर ठयो।
ईडर कोट उजैणी नगरी, काहिंदा सिंध पुरी विश्राम लीयो।
खुरासाण तथा लंका में जाकर वहां पर हवन किया और हवन समाप्ति पर अंगारों पर गूगल चढ़ाया था। जिससे वहां का वातावरण पवित्र हुआ था। ईडर गढ़, उज्जयिनी नगरी तथा कुछ समय तक समुद्र किनारे बसी हुई जगन्नाथ पुरी में भी विश्राम किया था।
कांय रे सायरा गाजै बाजै, घुरै घुर हरै करै इवांणी आप बलूं।
किहिं गुण सायरा मीठा होता, किहिं अवगुण हुआ खार खरूं।
(जब श्री देवजी जगन्नाथपुरी समुद्र के किनारे विराजमान थे। उसी समय ही वहां पर लोगों में एक महामारी फैल गई। जिसको वहां की स्थानीय भाषा में गूडिचा कहते है। इधर शीतला चेचक कहते है लोग आकर जम्भदेवजी से प्रार्थना करने लगे तब उन लोगों को अभिमंत्रित जल-पाहल पिलाया, जिससे उनकी बीमारी मिट गई। उसी महान घटना की यादगार में मन्दिर बनाने की प्रार्थना उन लोगों ने गुरुदेव से की। तब उन्हें मन्दिर बनाने की आज्ञा तो दी परन्तु उसमें कोई मूर्ति विशेष रखने की मनाही कर दी। अब भी जगन्नाथपुरी में वह मन्दिर ज्यों का त्यों विद्यमान है। वह मन्दिर जम्भेश्वर महादेव के नाम से प्रसिद्ध है। जो जगन्नाथ जी के मुख्य मन्दिर से थोड़ी दूरी पर उतर पश्चिम में स्थित है। वहां पर पंच महादेवों में एक जम्भेश्वर महादेव है। जिनकी मूर्ति जगन्नाथ जी के मुख्य मन्दिर के पास एकसे थोड़ी दूरी पर उतर पश्चिम में स्थित है। वहां पर पंच महादेवों में एक जम्भेश्वर महादेव है। जिनकी मूर्ति जगन्नाथ जी के मुख्य मन्दिर के पास एक छोटा सा मन्दिर है उसमें रखी हुई है। उन स्वर्ण मूर्तियों पांचों में एक जम्भेश्वर महादेव है। मेरे कहने का भाव यही है कि कोई जगन्नाथ जी जाये तो अवश्य ही देखकर जानकारी करके आवें। मैने देखा तो अवश्य ही था किन्तु समयाभाव के कारण पूरी जानकारी प्राप्त नहीं कर सका।) श्री देवजी वीदे से कह रहे है - हे वीदा! मैने उस जगन्नाथपुरी के समुद्र को देखा है तथा उसकी महान ऊंची ऊंची लहरों को भी देखा है। वे लहरें दूर से अत्यधिक भयावनी लगती है स्नानार्थी को डरा देती है। किन्तु जब हिम्मत करके अन्दर पहुंच जाता है तो वे लहरें कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती, बाहर लाकर छोड़ देती है। मित्रवत् व्यवहार करती है गुरु जाम्भोजी कहते है कि
उस समय मैने समुद्र से पूछा था कि हे सायर! तुं क्यों गर्जना करके यह व्यर्थ की ध्वनि करता है। इस घुर घुराने से तो तेरा अभिमान ही बढ़ेगा किन्तु बल घटेगा। जब तूं बलहीन हो जायेगा तो फिर क्या कर सकेगा तथा यह भी बता कि पहले तेरे में कौनसा गुण था जिस कारण तूं मीठा था और फिर कौनसा अवगुण हो गया जिससे तूं खारा हो गया। जब तेरे में अभिमान नहीं था तो तूं मधुर अमृतमय था और जब अभिमान आ गया तो कड़वा हो गया। मानव के लिये भी यही नियम लागू होता है।
देव दानवों ने मिलकर समुद्र मन्थन द्वारा अमृत प्राप्ति का प्रयत्न किया था। उस समय वासुकि नाग की तो रस्सी बनायी थी। सुमेरू पर्वत की मथाणी-झेरणा बनाया था तथा देव दानवों ने मिलकर मंथन प्रारम्भ किया तो वह मथानी वजनदार होने से देव दानव नहीं संभाल सके थे। नीचे धरती पर जाकर टिक गई थी, तब दोनों पक्षों ने ही जाकर भगवान विष्णु से पुकार की थी। उस समय भगवान विष्णु ने कछुवे का रूप धारण करके सुमेरू रूपी मथानी को उठा लिया था। फिर मन्थन कार्य चलने लगा तब समुद्र से अनेकानेक दिव्य रत्न निकलने लगे किन्तु उन पर असुरों ने कुछ भी ध्यान नहीं दिया। जिस कारण से अनेक रत्न तो देवताओं को प्राप्त हो चुके थे। चैदहवां रत्न अमृत निकला उसके लिये देव-दानव आपस में बंटवारा नहीं कर सके। उसके लिये भगवान ने मोहिनी रूप धारण करके अमृत देवताओं को पिलाकर अमर करना चाहते थे। किन्तु राहु दैत्य भी पी चुका था वह भी अमर हो चुका था। भेद खुलने पर देवताओं ने सिर काट डाला , तब एक के दो हो गये। अब भी राहु और केतु ये दोनों अमर है। सूर्य और चन्द्रमा को समय समय पर ग्रसित करते हैं। जब समुद्र से अमृत निकाल लिया तो पीछे कड़वा ही शेष रह गया। इसलिये हे वीदा! वह इतना महान अमृतमय समुद्र भी अभिमान करने से अमृत खो बैठा और दयनीय दशा को प्राप्त हो गया। उसके सामने तेरी क्या औकात है। तेरा भी यह अभिमान करना व्यर्थ ही है और भी ध्यान पूर्वक श्रवण कर। ,,
दहशिर ने जद वाचा दीन्ही, तद म्हे मेल्ही अनंत छलूं।
दहशिर का दश मस्तक छेद्या, ताणूं बाणूं लड़ूं कलूं।
लंकापति रावण ने प्रथम कठोर तपस्या की थी और शिव को तपस्या द्वारा प्रसन्न करके वरदान प्राप्त किया था। गुरु जाम्भोजी कहते है कि उस समय वरदान देने वाला भी मैं ही था तथा रावण का राज्य विशालता को प्राप्त हो चुका था। तब मैं राम रूप में सीता लक्ष्मण सहित वन में आ गया था और मैने ही रावण को छलने के लिये सीता को भेजा था।रावण जबरदस्ती नहीं ले गया था।रावण को मारने के लिये सीता को तो निमित बनाया था।वैसे बिना अपराध किये रावण को कैसे मार सकते थे। सीता वापसी के बहाने से मैने रावण के वरदान स्वरूप प्राप्त दश सिरों को बाणों द्वारा काट डाला था तथा रावण सहित पूरे परिवार को तहस-नहस कर डाला था।
सौखा बाणूं एक बखांणू,जाका बहू परवाणू,जिसका राखूं तास बलुं|
जब रावण को मारने के लिये चढ़ाई की थी तब बीच में समुद्र आ गया था। तीन दिनों तक प्रतीक्षा करने पर भी वह दुष्ट नहीं माना तो फिर धनुष पर बांण का संधान कर लिया था और उसे सुखाने का विचार पक्का ही हो गया था।उस समय समुद्र अपनी सठता भूल कर हाथ जोड़कर सामने उपस्थित हुआ था। इसका बहुत प्रमाण है। यदि तुझे विश्वास नहीं है तो शास्त्र उठाकर देख ले। उस सठ समुद्र तथा रावण ने अपना बल निश्चित ही तोल करके देखा था तथा उस अभिमान के बल पर ही गर्व किया करते थे। किन्तु उन दोनों का ही गर्व चूर-चूर कर डाला था। हे वीदा!जब रावण एवं समुद्र का अभिमान स्थिर नहीं रह सका, अहंकार के कारण दोनों को ही लज्जित होना पड़ा तो तेरी कितनी सी औकात है। किसके बल पर तूं अभिमान करता है।
राय विष्णु से वाद न कीजै, कांय बधारो दैत्य कुलूं।
म्हे पण म्हेई थे पण थेई, सा पुरूषा की लच्छूं कुलूं।
हे वीदा!तुम्हारे सामने प्रत्यक्ष देवाधिदेव विष्णु विराजमान है। व्यर्थ का वाद विवाद न करो। ऐसा करके दैत्य कुल को क्यों बढ़ाता है। तुम्हारे देखा देखी और कितने मानव से दानव हो जायेंगे। फिर तूं जानता है कि दानवों की क्या गति हुई है और क्या हो रही है। हम तो अपनी जगह पर हम ही है। तूं हमारी बराबरी नहीं कर सकता और तूं अपनी जगह पर तूं ही है। हम लोगों को तुम अपने जैसा नहीं बना सकता। उन महापुरूषों के तो लक्षण बहुत ऊंचे थे। जिसका तूं नाम लेता है वे तेरे सदृश अधम नहीं थे।
गाजै गुड़कै से क्यू वीहै, जेझल जाकी संहस फणूं।
मेरे माय न बाप न बहण न भाई, साख न सैण न लोक जणों।
तुम्हारे इस प्रकार के झूठे गर्जन तर्जन से कौन डरता है तथा डरने का कोई कारण भी नहीं है क्योंकि तुम्हारे पास कुछ शक्ति तो है ही नहीं केवल बोलना ही जानता है। जिसके पास शेष नाग के हजारों फणों की फुत्कार के सदृश शक्ति की ज्वाला है, वह तेरे इस मामूली क्रोध की ज्वाला से भयभीत कभी नहीं होगा। कोई सामान्य गृहस्थ जन हो सकता है तेरे से कुछ भयभीत हो जाये क्योंकि उसका अपना परिवार घर हैं उनको तूं कदाचित उजाड़ भी सकता है। किन्तु जिसके माता-पिता, बहन-भाई, सखा, सम्बन्धी कोई नहीं है। उसका तूं क्या बिगाड़ेगा।
वैकुण्ठे विश्वास विलंबण, पार गिराये मात खिणूं।
विष्णु विष्णु तूं भण रे प्राणी, विष्णु भणन्ता अनन्त गुणूं।
हम तो वैकुण्ठ लोक के निवासी है। ऐसा तूं विश्वास कर तथा उस अमर लोक की प्राप्ति का प्रयत्न कर। जिससे तेरा सदा के लिये जन्म-मरण का चक्कर छूट जायेगा। इस अवसर को प्राप्त करके भी मृत्यु को प्राप्त न हो जाना। कुछ शुभ कमाई कर लेना। हे प्राणी! विष्णु के पास परम धाम में पहुंचने के लिये उसी परमात्मा विष्णु का स्मरण कर। उसका स्मरण भजन करने में अनन्त फलों की प्राप्ति होती है। विष्णु के भजन से परम पुरूषार्थ रूप मोक्ष की प्राप्ति होती है। यही अनन्त फल है।
विषलृ-व्यापके, धातु से विष्णु शब्द की व्युत्पति होती है अर्थात् विवेष्टि व्यापनोति इति विष्णु‘‘ जो सर्वत्र कण कण में सता रूप से व्यापक हो वही विष्णु है ऐसे विष्णु के स्मरण करने का अर्थ हुआ कि सर्वत्र सता के साथ सम्बन्ध स्थापित कर लेना है। उसी सता को गुरुदेवजी सर्वत्र बताते हुऐ कहते है कि उस विष्णु रूप सता के हजारों अनगिनत नाम है हजारों अनन्त स्थान है तथा उसी प्रकार से उतने ही गांव है और भी सता व्यापक होती हुई गर्जना, वाद्यों, हीरे, जल, गगन, गंभीर समुद्र मे तथा चवदा भवनों में तीनों लोकों मे तथा इस जम्बूदीप में और सप्त पातालों में उसकी सता विद्यमान है।
अई अमाणों तत समाणों, गुरु फरमाणों, बहु परमाणों।
अइयां उइयां निरजत सिरजत।
इस पंच भौतिक जड़मय शरीर में वह ज्योति स्वरूप तत्त्व समाया हुआ है। उस परम तत्त्व की ज्योति से ही यह सचेतन होता है। यह गुरु परमात्मा का ही कथन है। इसलिये सत्य है। इसमें बहुत ही शास्त्र वेद पुराण आप्त पुरूष प्रमाण है। यह जड़ चेतन मय संसार उसी परम तत्व रूपी परमात्मा की सृजन कला का कमाल है और उसकी ही जब वापिस समेटने की इच्छा होगी तो वह वापिस लय को भी प्राप्त हो जायेगा। वह भी उसी की ही करामात है।
नान्ही मोटी जीया जूणीं, एति सास फुरंतै सारूं।
कृष्णी माया घन बरषंता, म्हे अगिणि गिणूं फूहारूं।
इस विश्व में कुछ छोटी तथा कुछ बड़ी जीवों की जातियां है। छोटी जाति की उत्पत्ति स्थिति तथा मृत्यु का काल अत्यल्प होता है और बड़ी जाति जैसे मानवादिक का समय अधिक होता है। गुरु जम्भेश्वर जी कहते हैं कि मैं अपनी माया द्वारा इनका सृजन करता हूं। किन्तु उत्पत्ति में समय तो एक श्वांस बाहर निकलना और अन्दर जाने का ही लगता है अर्थात् जीवन और मृत्यु के बीच का फैसला तो एक श्वांस का ही होता है। यदि श्वांस आ गया तो जीवन है, नहीं आया तो मृत्यु है। जिस प्रकार से कृष्ण परमात्मा की माया बादलों द्वारा जल बरषाती है किन्तु अनगिनत बूंदें भी गिन गिनकर डाली जाती है अर्थात् जहां जितना बर्षाना है वहां उतना ही बर्षेगा न तो कम और न ही ज्यादा। उसी प्रकार से सृष्टि की छोटी-मोटी जीया जूणी भी पानी की बूंदों की तरह अनगिनत होते हुए भी परमात्मा के द्वारा गिनी जाती है। परमात्मा की दृष्टि से बाह्य कुछ भी नहीं है।
कुण जाणै म्है देव कुदेवों, कुण जाणै म्है अलख अभेवों। कुण जाणें म्है सुरनर देवों, कुण जाणै म्हारा पहला भेवों।
वीदे द्वारा जब वस्त्र विहीन करके यह देखने का प्रयत्न किया गया कि ये स्त्री है या पुरूष है। तब इस प्रसंग का इस प्रकार से निर्णय करते हुऐ कहा कि कौन जानता है कि मैं देव हूं या कुदेव हूं। कौन जानता है कि मैं अलख हूं या लखने योग्य हूं। यह भी कौन जान सकता है कि मैं देवाधिदेव भगवान विष्णु हूं या सामान्य देवता हूं। तुम्हारे पास मेरा आदि व अन्त जानने का भी क्या उपाय है।
कुण जाणै म्हे ग्यानी के ध्यानी, कुण जाणै म्हे केवल ज्ञानी। कुण जाणे म्हे ब्रह्म ज्ञानी, कुण जाणें म्है ब्रह्माचारी।
बुद्धि द्वारा अगम्य को कैसे जाना जा सकता है। इसलिये मैं ज्ञानी हूं या ध्यानी हूं। इस बात को तुम नहीं जान सकते। मैं केवल ज्ञानी हूं या अज्ञानी हूं। यह तुम किस प्रकार से जान पाओगे। मैं ब्रह्मज्ञानी हूं या ब्रह्मचारी हूं यह तुम्हारे समझ से बाहर की बात है।ध्यान रहे कि इन विषयों को केवल जाना नहीं जा सकता तदनुसार जीवन बनाया जाता है। न ही केवल बुद्धि द्वारा जानने से रस आ सकेगा।
यह कौन जानने का दावा करता है और बता सकता है कि मैं कम भोजन करने वाला हूं या निरहारी हूं या अधिक भोजन करने वाला हूं। मैं पुरूष हूं या नारी यह भी तुम कैसे जान सकते हो, कौन जानता है कि मैं वाद विवादी हूं या लोभी हूं या सत्य मितभाषी हूं या बकवादी हूं।
कौन जानता है कि मैं योगी हूं या भोगी हूं। यह भी कौन जान सकता है कि मैं दुनिया से सम्बन्ध रखनेवाला हूं या निर्लेप हूं। कौन जान सकता है कि मैं जितना चाहता हूं उतना ही मुझे भोग्य वस्तु प्राप्त है या नहीं। यह सांसारिक सामान्य व्यक्ति नहीं जान सकते है कि मैं इस संसार का स्वामी हूं।
कुण जाणें म्हे सूम क दाता, कुण जाणें म्हे सती कुसती। आपही सूम र आप ही दाता, आप कुसती आप सती।
कौन जानता है कि मैं सूम कंजूस हूं या महान दानी हूं तथा यह भी कौन जान सकता है कि मैं सती हूं या कुसती हूं। मैं क्या हूं इस विचार को छोड़ो और जो मैं कहता हूं इस पर विचार करोगे तो सभी समस्या स्वतः ही सुलझ जायेगी और यदि विना कुछ धारण किये केवल बौद्धिक अभ्यास ही करते रहोगे तो कुछ भी नहीं समझ पाओगे। इसलिये गुरुदेव कहते है कि मैं ही सभी कुछ हू और सभी कुछ होते हुऐ भी कुछ भी नहीं हूं।मैं ही सूम और मैं ही दाता हूं और मैं ही सती रूप में ही तथा कुसती भी मैं ही हूं। जैसा जो देखता है मैं उसके लिये वैसा ही हूं। चाहे तो मुझे जिस रूप में देखें वह तो उसकी दृष्टि पर निर्भर करता है।
नव दाणूं निरवंश गुमाया, कैरव किया फती फती।
मैने समय समय पर अनेको अवतार धारण करके धर्म की स्थापना की है तथा राक्षसों का विनाश किया है। उनमें नौ राक्षस अति बलशाली थे। वे कुम्भकरण, रावण, कंस, केशी, चण्डरू, मधु, कीचक, हिरणाक्ष तथा हिरण्यकश्यपु। इनके लिये विशेष अवतार लेने पड़े तथा कैरव समाज जो साथ में मिल करके उपद्रव किया करते थे। उनको भी बिखेर दिया। मृत्यु के मुख में पहुंचा दिया। यह तो कृष्ण का एक राजनैतिक योद्धा का रूप था।
राम रूप कर राक्षस हडि़या, बाण के आगे वनचर जुडि़या। तद म्हे राखी कमल पती, दया रूप म्हे आप बखाणां। संहार रूप म्हे आप हती।
राम रूप धारण करके मैने अनेकानेक राक्षसों को मारा और लंका में जाकर रावण को मारने के लिये बाण खींचा था। तब भी हनुमान सुग्रीव आदि वानर सेना मेरे आगे आकर सेना के रूप में जुड़ गयी थी तथा उस भयंकर संग्राम में भी कमल फूल सदृश कोमल स्वभाव वाले विभीषण एवं कमला सीता की उन राक्षसों से रक्षा की थी। वे मदमस्त हाथी सदृश उन कोमल कमल कलियों को कुचलना चाहते थे।मेरे दोनों ही रूप प्रसिद्ध है।जब मैं दया करता हूं तो परम दयालु हो जाता हू और राक्षसों से जब मैं युद्ध करता हूं तो महाभयंकर हत्यारा हो जाता हूं।
भैमासुर ने सोलह हजार गोपियों को जेल में डाल दिया था और यह प्रण कर रखा था कि जब बीस हजार हो जायेगी तब इनसे विवाह करूंगा। वे कन्यायें ही थी, गोप बालाएं, भोली-भाली थी तथा सभी साथ में रहकर मेल-मिलाप वाली थी। अब तो उनके खेलने का , शारीरिक मानसिक विकास करने का समय था। किन्तु दुष्ट भौमासुर ने उन्हें कैदी जीवन जीने के लिये मजबूर कर दिया था। मैने भोमासुर को मार करके उन्हें सहज में ही मुक्त करवा दी थी तथा उन्हें शरण भी प्रदान की थी। वे गोपियां मुझे पति परमेश्वर के रूप में स्वीकार कर चुकी थी। फिर भी मैं कृष्ण रूप में यति बाल ब्रह्मचारी रूप में ही था। इतनी पत्नियां होते हुऐ भी कृष्ण का बाल ब्रह्मचारी होना यह ईश्वरीय करामात ही है।
उन गोपियों के साथ रमण करने वाला मैं स्वयं तपस्वियों का तपस्वी हूं। वही गोप ग्वाल बालों का प्रिय मैं जब उनके साथ खेल खेला करता था तब तो मण्डली जुड़ी थी किन्तु मैं जब वृन्दावन को छोड़कर चला गया तो पुनः उस मण्डली को भिन्न भिन्न कर दिया यही तोड़ फोड़ करने वाला मैं यदि रक्षा करना चाहूं तो भयंकर अग्नि में से एक सूखे पते की भी रक्षा कर सकता हूं और यदि मैं न चाहूं तो रक्षा के सभी उपाय निष्फल हो जाते हैं।
श्री गुरु जम्भेश्वर शब्दवाणी (शब्द 06) || Shri Guru Jambheshwar Shabdvani (Shabd 06) || Bishnoism
श्री गुरु जम्भेश्वर शब्दवाणी
शब्द: ०६
ओउम भवन भवन म्हें एका जोती, चुन चुन लिया रतना मोती।
भावार्थ- सम्पूर्ण चराचर सृष्टि के कण-कण में परम तत्व रूप परब्रह्या की सामान्य ज्योति सर्वत्र है अर्थात् प्रत्येक शरीर में स्थित जीवात्मा उसी एक परमात्मा का ही प्रतिबिम्ब है। जैसा बिम्ब रूप परमात्मा है वैसे ही प्रतिबिम्ब रूप जीव है, दोनों में कोई भेद नहीं है। यदि किसी को भेद मालूम पड़ता है तो वह केवल उपाधि के कारण ही हो सकता है। गुरु जाम्भोजी कहते हैं कि जीव सभी एक होने पर भी तथा परमात्मा का अंश होने पर भी, हमारे जैसे अवतारी पुरुष सभी जीवों का उद्धार नहीं करते क्योंकि सभी जीव अब तक ईश्वर प्राप्ति की योग्यता नहीं रखते इसलिए जो हीरे-मोती सदृश अमूल्य शुह् सात्विक सज्जनता को प्राप्त कर चुके हैं, उन्हें ही हम परम धाम में पहुंचाते हैं।
म्हे खोजी थापण होजी नाही, खोज लहां धुर खोजूं।
हम खोजी हैं अर्थात् जिन जीवों के कर्मजाल समाप्त हो चुके हैं वे लोग अब परम तत्व के लिए बिल्कुल तैयार हैं, उन्हें केवल सहारे की जरूरत है। ऐसे जीवों की हम खोज करेंगे तथा चुन-चुन कर उन्हें परम सत्ता से साक्षात्कार करवाएंगे। हम होजी नहीं हैं, अर्थात् अज्ञानी या नासमझ नहीं हैं। एक-एक कार्य बड़ी शालीनता से किया जाएगा जो सदा के लिए सद्मार्ग स्थिर हो जाएगा। सृष्टि के प्रारम्भिक काल से लेकर अब तक जितने भी जीव बिछुड़ गए हैं उन्हें प्रह्लाद जी के कथनानुसार वापिस खोज करके सुख शांति प्रदान करूंगा। इसलिए मेरा यहां पर आगमन हुआ है।
उस परम तत्व की प्राप्ति जीव करते हैं, वह अल्लाह, माया रहित, शब्द लेखन शक्ति से अग्राह्र उत्पत्ति रहित, मूल स्वरूप, जो स्वयं अपने आप में ही स्थित है, उसका विनाश कैसे हो सकता है? इसलिए इस सिद्धांत से विपरीत जो जन्मा हो, लेखनीय हो, डाल रूप हो, जो उत्पत्तिशील हो उसका ही विनाश संभव है। इसलिए उस नित्य आनन्द स्वरूप परमात्मा को प्राप्त करके जीव भी नित्य आनन्द रूप ही हो जाता है।
म्हे सरै न बैठा सीख न पूछी, निरत सुरत सब जाणी।
जब उधरण ने पूछा कि हे देव! यह शिक्षा आपने कौन सी पाठशाला में प्राप्त की, क्योंकि ऐसी विद्या तो हम भी सीखना चाहते हैं। तब जम्भेश्वरजी ने कहा कि ‘मैंने यह विद्या किसी पाठशाला में बैठकर नहीं सीखी।’ उधरण-तो फिर कैसे जान गए? हे उधरण! मैंने इसी प्रकृति की पाठशाला में बैठकर सुरति-वृति को निरति यानि एकाग्र करके सभी कुछ जान लिया। पाठशाला में बैठकर तो सभी कुछ नहीं जाना जा सकता किन्तु उस सत्ता परमेश्वर के साथ वृति को मिला लेने से सभी कुछ जाना जा सकता है, क्योंकि वह परम तत्व व्यापक होने से वृति एकाग्र कर्ता जीव भी व्यापकत्व को प्राप्त हो जाता है और सभी कुछ जान लेता है। इसलिए आप भी मन-वृति को एकाग्र कीजिए और सभी कुछ जानिए।
उत्पत्ति हिन्दू जरणा जोगी, किरिया ब्राह्रण, दिलदरवेसां, उनमुन मुल्ला, अकल मिसलमानी।
उत्पत्ति से तो सभी हिन्दू हैं, क्योंकि जितने भी धर्म और सम्प्रदाय चले हैं, उनका तो कोई न कोई समय निश्चित है। किन्तु हिन्दू आदि अनादि हैं, कोई भी संवत् निश्चित नहीं है तथा मानवता जिसे हम कहते हैं,वह पूर्णतया हिन्दू में ही सार्थक होती है, इसलिए उत्पन्न होता हुआ बालक हिन्दू ही होता है, बाद में उसको संस्कारों द्वारा मुसलमान, इसाई आदि बनाया जाता है। जिसके अन्दर जरणा अर्थात् सहनशीलता है वही योगी है। जिस प्राणी के अन्दर क्रिया, आचार-विचार, रहन-सहन, पवित्र तथा शुह् हैं वही ब्राह्रण है। जिस मानव का अंतःकरण शुद्ध पवित्र, विशाल, राग द्वेष से रहित है वही दरवेश है। जिस मनुष्य ने मानसिक वृतियों को संसार से हटाकर आत्मस्थ कर लिया है वही मुल्ला है तथा जो इस संसार में बुद्धिद्वारा सोच-विचार के कार्य करता है वही मुसलमान हो सकता है क्योंकि मुसलमान पंथ संस्थापक ने अकलहीनों को अकल दी थी जिससे यह पंथ स्थापित हुआ था। कोई भी जाति विशेष इन विशिष्ट कर्मों द्वारा ही निर्मित होती है। कर्महीन होकर केवल जन्मना जाति से कुछ भी लाभ नहीं है। यह तो मात्र पाखण्ड ही होगा।
श्री गुरु जम्भेश्वर शबदवाणी (शब्द 05) || Shri Guru Jambheshwar Shabdvani (Shabd 05) || Bishnoism
ओउम अइयालो अपरंपर बाणी,महे जपां न जाया जीयूं।|
हे संसार के लोगों ! मेरी बाणी अपरंपार है अर्थात् तुम लोग जिनकी परंपरा से उपासना करते आये हो और अब भी कर रहे हो, ऐसी परंपरा वाली उपासना मैं नहीं करता। आप लोगों ने जिस परम तत्व की कभी कल्पना भी नहीं की होगी, जो लोगों की सामान्य वाणी से परे है। केवल योगी लोगों द्वारा अनुभव गम्य है, उसी परम देव की मैं मन वचन कर्म से उपासना तथा जप करता हूं और आप लोग भी उसी की उपासना करो। हमारे जैसे पुरूष कभी भी जन्में हुए जीवों की उपासना जप नहीं करते यदि आप लोग करते हैं तो छोड़ दीजिये। जन्मा जीव तो स्वयं असमर्थ है, कमजोर व्यक्ति दूसरे की क्या सहायता कर सकता है।
नव अवतार नमो नारायण,तेपण रूप हमारा थीयूं।|
परम सत्तावान भगवान विष्णु के ही नवों अवतार हुए हैं, ये नव अवतार-मच्छ, कच्छ, वाराह, नृसिंह, बावन, परशुराम, राम-लक्ष्मण, कृष्ण तथा बुद्ध इत्यादि। ये नवों अवतार ही नमन करने योग्य हैं, इनसे अतिरिक्त अन्य जन्मा जीव उपास्य नहीं है तथा ये नवों अवतार श्री जाम्भोजी कहते हैं कि मेरे ही स्वरूप है। देश काल, शरीर से भिन्न होते हुए भी तत्व रूप से तो मैं और नवों अवतार एक ही है।
जपी तपी तक पीर ऋषेश्वर, कांय जपीजै तेपण जाया जीयूं।|
अब आगे जन्मे हुए जीवों को बता रहे हैं, जिनका जप लोग किया करते हैं, उनमे यती, तपस्वी, तकिये पर रहने वाले फकीर, ऋषि,मण्डलेश्वर, इत्यादि जन्मे जीव हैं। हे लोगों ! इनका जप क्यों करते हो ?
वासुकि नाग, शेषनाग, मणिधारी, गुणवान तथा फणधारी, नागराज ही क्यों न हों ये सभी जन्में हुए जीव है इसलिये जप करने के योग्य नहीं है फिर इनके नीचे पड़ कर धोक क्यों लगाते हो ?
चैंसठ प्रकार की योगनियां तथा बावन प्रकार के बीर - भैरव जो देहातों में अब भी पूजे जाते हैं ये सभी जन्म-मरण धर्मा सामान्य जीव है इनकी आराधना सदा ही वर्जनीय है, आप लोग क्यों भोपों-पुजारियों के चक्कर में पड़ कर धन, बल, समय, व्यर्थ में ही बरबाद करते हो।
जपां तो एक निरालंभ शिम्भूं, जिहिं के माई न पीयूं||
एक निराकार निरालंभ, निरंजन, स्वयंभूं का ही हम तो जप करते हैं जिनके न तो कोई माता है और न ही कोई पिता ही है तथा जो सर्वाधार सर्वशक्तिमान है और वह सभी के माता-पिता भाई-बन्धु सभी कुछ है।
न तन रक्तूं न तन धातूं,न तन ताव न सीयू||
एक मात्र समादरणीय वह तत्व साकार रूप धारण करके सर्वसृष्टि की रचना करता है। मृत्यु से स्वयं तो रहित है किन्तु सभी जीवों का एक मूल स्थान है। वहीं से जीवों का उद्गम होता है, अन्त में वहीं जाकर जीव विलीन हो जाते हैं। ऐसे परम तत्व मूल को खोजना चाहिये, प्राप्त करना चाहिये।
सर्व सिरजत मरत विवरजत,तास न मूलज लेणा कीयों।|
एकमात्र समादरणीय वह तत्व साकार रूप धारण करके सर्वसृष्टि की रचना करता है। मृत्यु से स्वयं तो रहित है किन्तु सभी जीवों का एक मूल स्थान है। वहीं से जीवों का उद्गम होता है, अन्त में वहीं जाकर जीव विलीन हो जाते हैं। ऐसे परम तत्व मूल को खोजना चाहिए, प्राप्त करना चाहिए।
अइयालों अपरंपर बाणी, महे जपां न जाया जीयूं।|
इसीलिये हे लोगो! मेरा मार्गकुछ विचित्र है किन्तु सत्य सनातन है, संसार की लीक से हटकर होने से आश्चर्य नहीं करना। अतः मैं जन्में जीवों का जप नहीं करता। जो स्वयं फंसे हैं वे दूसरों को कैसे मुक्ति दिला सकते हैं।
श्री गुरु जम्भेश्वर शबदवाणी (शब्द 04) || Shri Guru Jambheshwar Shabdvani (Shabd 04) || Bishnoism
श्री गुरु जम्भेश्वर शब्दवाणी शब्द - ४
ओ3म् जद पवन न होता पाणी न होता, न होता धर गैणारूं।
महाप्रलयावस्था में जब सृष्टि के कारण रूप आकाशादि तत्व ही नहीं रहते, वे अपने कारण में विलीन हो जाते हैं तथा पुनः सृष्टि प्रारंभ अवस्था में अपने कारण से कार्य रूप से परिणित हो जाते हैं, यही क्रम चलता रहता है। श्री देवजी कहते हैं कि जब सृष्टि की उत्पत्ति नहीं हुई थी उस समय सृष्टि के ये कारण रूप पवन, जल, पृथ्वी, आकाश और तेज नहीं थे। जैसा इस समय आप देखते हैं वैसे नहीं थे, अपने कारण रूप में ही थे।
चन्द न होता सूर न होता, न होता गिंगंदर तारूं।
उस समय सूर्य, चन्द्रमा नहीं थे तथा ये आकाश मण्डल के तारे भी नहीं थे अर्थात् अग्नि तत्व का फैलाव नहीं हुआ था। यानि अग्नि स्वयं कार्य रूप में परिणित नहीं हो सकी थी।
गग्न गोरू माया जाल न होता, न होता हेत पियारूं।
तथा अन्य पृथ्वी तत्व का पसारा भी तब तक नहीं हो सका था जो प्रधानतः गाय-बैल के रूप में प्रसिह् हैं तथा तब तक ईश्वरीय माया ने अपनी गति विधि प्रारम्भ नहीं की थी। सभी जीव-आत्मा अपने शुह् स्वरूप में ही स्थित थे। माया ने अपना जाल अब तक नहीं फैलाया था। जिससे प्रेम, मोह, द्वेष आदि भी नहीं थे किंतु सभी कुछ सामान्य ही था।
माय न बाप न बहण न भाई, साख न सैण न होता पख परवारूं।
तब तक माता-पिता, बहन-भाई सगा-सम्बन्धी मित्र आदि परिवार का पक्ष नहीं था। जीव स्वयं अकेला ही था। मोह माया जनित दुख से रहित चैतन्य परमात्मा हिरण्यगर्भ के रूप में स्थित था। लख चैरासी जीया जूणी न होती, न होती बणी अठारा भारूं। चैरासी लाख योनियां भी तब तक उत्पन्न नहीं हुई थी अर्थात् मनुष्य आदि जीव भी सुप्तावस्था में ही थे। अठारह भार वनस्पति भी उस समय नहीं थी। ;शास्त्रों में वर्णित है कि कुल वनस्पति अठारह भार ही है यह भार एक प्रकार का तोल ही है।
सप्त पाताल फूंणींद न होता, न होता सागर खारूं।
सातों पाताल तथा पाताल लोक का स्वामी पृथ्वी धारक शेष नाग भी नहीं था। यहां पर केवल पाताल लोकों का ही निषेध किया है, इसका अर्थ है कि अन्य उपरि स्वर्गादिक लोक तो थे तथा खारे जल से परिपूर्ण समुन्द्र भी उस समय नहीं था।
अजिया सजियां जीया जूणी न होती, न होती कुड़ी भरतारूं। जड़, चेतनमय दोनों प्रकार की सृष्टि उस समय नहीं थी तथा उन दोनों प्रकार की सृष्टि के रचयिता माया पति सगुण-साकार ब्रह्म, विष्णु, महेश तीनों देव भी तब तक नहीं थे। आकाशादि सृष्टि के उत्पत्ति के पश्चात् ही सर्वप्रथम विष्णु की उत्पत्ति होती है, विष्णु से ही ब्रह्म की उत्पत्ति होती है, ब्रह्म ही अपनी झूठी मिथ्या माया से जगत की रचना करते हैं ऐसी प्रसिह् िहै इसलिए उस समय कूड़ी, झूठी माया तथा माया पति दोनों ही नहीं थे, तब जड़ चेतन की उत्पत्ति भी नहीं थी।
अर्थ न गर्थ न गर्व न होता, न होता तेजी तुरंग तुखारूं।
उस समय ये सांसारिक चकाचैंध पैदा करने वाले धन दौलत तथा उससे उत्पन्न होने वाला अभिमान नहीं था। चित्र-विचित्र रंग-रंगीले तेज चलने वाले घोड़े, भी उस समय नहीं थे।
हाट पटण बाजार न होता, न होता राज दवारूं।
श्रेष्ठ दुकानें, व्यापारिक प्रतिष्ठान, बाजार आदि दिग्भ्रमित करने वाले राज-दरबार भी उस समय नहीं थे। जो इस समय यह उपस्थित चकाचौंध तथा राज्य प्राप्ति की अभिलाषा जनित क्लेश है उस समय नहीं था।
चाव न चहन न कोह का बाण न होता, तद होता एक निरंजन शिम्भू।
इस समय की होने वाली चाहना यानि एक-दूसरे के प्रति लगाव या प्रेम भाव, खुशी से होने वाली चहल-पहल, उत्सव तथा क्रोध रूपी बाण भी उस समय नहीं थे। प्रेम तथा क्रोध दोनों ही अपनी-अपनी जगह पर स्थित होकर मानव को घायल कर देते हैं, यह स्थिति उस समय नहीं थी तो क्या? कुछ भी नहीं था। उस समय तो माया रहित एकमात्र स्वयंभू ही था।
कै होता धंधूकारूं बात कदो की पूछै लोई, जुग छतीस विचारूं।
या फिर धंधूकार ही था। पंच महाभूतों की जब प्रलयावस्था होती है तब वे परमाणु रूप में परिवर्तित हो जाते हैं, उन परमाणुओं से धन्धूकार जैसा वातावरण हो जाता है। हे सांसारिक लोगो! आप कब की बात पूछते जो ? यदि आप कहें तो एक या दो युग नहीं, छतीस युगों की बात बता सकता हूं। तांह परैरे अवर छतीसूं, पहला अन्त न पारूं। तथा छतीस युगों से भी आगे की बात बता सकता हूं तथा उन छतीस से भी पूर्व की बात बता सकता हूं।
ह परैरे अवर छतीसूं, पहला अन्त न पारूं।
तथा छतीस युगों से भी आगे की बात बता सकता हूं तथा उन छतीस से भी पूर्व की बात बता सकता हूं। उससे पूर्व का तो कोई अन्त पार भी नहीं है।
म्हे तदपण होता अब पण आछै, बल बल होयसा कह कद कद का करूं विचारूं।
जब इस सृष्टि का विस्तार कुछ भी नहीं था, इसलिए मैं बता भी सकता हूं कि उस समय क्या स्थिति थी। इस समय मैं विद्यमान हूं और आगे भी रहूंगा। हे उधरण! कहो कब कब का विचार कहूं। अर्थात् आप लोग मेरी आयु किस किस समय की पूछते हैं? मैं अपनी आयु कितने वर्षों की बतलाऊ।
श्री गुरु जम्भेश्वर शब्दवाणी ( शब्द ३) || Shri guru jambheshwar shabdvani (Shabd 3) || Bishnoism
ओ3म् मोरें अंग न अलसी तेल न मलियों, ना परमल पिसायों।
हे वीदा! मेरे इस शरीर पर किसी भी प्रकार का अलसी आदि का सुगन्धित तेल या अन्य पदार्थ का लेपन नहीं किया गया है क्योंकि मैं यहां सम्भराथल पर बैठा हुआ हूं। यहां ये सुगन्धित द्रव्य उपलब्ध भी नहीं है और न ही इनकी मुझे आवश्यकता ही है।
जीमत पीवत भोगत विलसत दीसां नाही, म्हापण को आधारूं।
पृथ्वी का गुण गन्ध है जो भी पार्थिव पदार्थों का शरीर रक्षा के लिये सेवन करेगा, उस शरीर में दुर्गन्ध अवश्य ही आएगी किन्तु जम्भेश्वर जी कहते हैं कि हे वीदा! मुझे इस शरीर रक्षार्थ इन पृथ्वी आदि पांच द्रव्यों की आवश्यकता नहीं पड़ती क्योंकि परमात्मा तो सभी का आधार है, परमात्मा का आधार कोई नहीं होता है। वह परमात्मा पंच भौतिक शरीर धारण करता है। तो भी अन्य सांसारिक जनों की भांति खाना-पीना भोग विलास आदि नहीं करता, वे अत्यल्प आवश्यकतानुसार आहार यदि करते हैं तो वह आहार दुर्गन्ध आदि विकार उत्पन्न नहीं कर सकता। इसलिए हमारा शरीर सुगन्ध वाला है न कि दुर्गन्ध वाला।
अड़सठ तीर्थ हिरदै भीतर, बाहर लोका चारूं।
अड़सठ स्थानों में प्रसिद तीर्थ तो बाह्या न होकर ह्रदय के भीतर ही हैं अर्थात् जिस प्रकार से अड़सठ तीर्थ ह्रदय में प्रवाहित होते हैं, योगी लोग उनमें स्नान करते हैं उसी प्रकार से चेतन सत्ता भी ह्रदय देश में प्रत्यक्ष रूपेण रहती है, उसमें ही जो रमण करेगा उसके शरीर में कैसी दुर्गन्ध, वह ज्योतिर्मय ईश्वर तो सदा सर्वदा सुगन्धमय ही है तथा जिनकी वृत्ति बाह्या शरीर में ही विचरण करती है। परमात्मा की झलक से वंचित हो चुकी है तथा बाह्या पदार्थों का आश्रय ग्रहण किया है ऐसे जनों का शरीर दुर्गन्धमय ही होगा। इसलिए हे वीदा! मैं तो अड़सठ तीर्थों में स्नान नित्य प्रति करता ही हूं, यहां पर सांसारिक जनों की भांति व्यवहार तो मेरा लोकाचार ही है। नान्ही मोटी जीया जूणी, एति सांस फूंरंतै सारूं। सृष्टि के छोटे तथा बड़े, जीवों की उत्पत्ति , स्थिति तथा प्रलय के बीच का समय एक श्वांस का ही होता है। जितना समय श्वांस के आने तथा जानें में लगता है, उतनें ही समय में परमात्मा सम्पूर्ण जीवों की सृजना कर देते हैं वह सृजन कर्ता मैं ही हूं।
वासंदर क्यूं एक भणिजै, जिहिं के पवन पिराणों|
यहां पर उपर्युक्त वचनों को श्रवण करने पर वीदा के अन्दर कुछ क्रोध उत्पन्न हो गया, इसलिए जम्भेश्वर जी ने कहा- हे वीदा! तूं एकमात्र क्रोध रूपी अग्नि को ही क्यों बढ़ावा देता है। यह क्रोध तुम्हारे लिए विनाशकारी है। अग्नि और क्रोध में सादृश्यता बताते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार से अग्नि की प्राण वायु होती है उसी प्रकार से क्रोध का प्राण भी वायु रूप झट से निकला हुआ कठोर वचन होता है।
आला सूका मेल्है नाही, जिहिं दिश करै मुहाणों।
जब अग्नि प्रज्ज्वलित हो जाती है तब न तो हरी वनस्पति को छोड़ती है और न ही शुष्क वनस्पति को छोड़ता और न ही निर्दोषी का ख्याल करता, विवेक शून्य होकर दोनों पर बराबर ही अपराध कर देता है। अग्नि तथा क्रोध दोनों ही जिस तरफ भी बढ़ेंगे उस तरफ तबाही मचा देंगे।
पापे गुन्है वीहे नाही, रीस करै रीसाणों।
अग्नि तथा क्रोधदोनों ही जिस तरफ भी बढ़ेंगे अर्थात् जिस व्यक्ति को भी अपना लक्ष्य बनाएंगे उस समय न तो उसे पापी का ज्ञान रहेगा और न ही गुणी का ज्ञान रहेगा। क्रोध में व्यक्ति जब क्रोधित हो जाता है तो निर्णय लेने में असमर्थ हो जाता है, उसका कर्तव्य - अकर्तव्य का विवेक भ्रष्ट हो जाता है।
बहूली दौरे लावण हारू, भावै जाण मैं जाणूं।
यह क्रोध ही सभी दुर्गुणों की जड़ है। एक क्रोध से ही सभी दुर्गुण उत्पन्न हो जाते हैं और ये दुर्गुण बार-बार नरक में ले जाने वाले होते हैं। इस जीवन में दुःखों को भोगते हैं तथा परलोक भी दुःखमय बन जाता है। अग्नि हाथ में चाहे जान कर ले या अनजान में ले वह तो जलाएगी ही। इस प्रकार से क्रोध भी चाहे जानकर करें या अनजान
में करें वह तो दुःखित करेगा ही।
न तूं सुरनर न तूं शंकर, न तू राव न राणों।
हे वीदा! न तो तूं देवता है और न ही तूं मानव है, तथा न ही तूं शंकर है, न तूं राजा है, और न ही तूं राणा है।
काचै पिण्ड अकाज चलावै, महा अधूरत दाणों।
तेरा यह शरीर तो कच्चा है इस पर तूं इतना अभिमान क्यों करता है यह कभी भी टूट सकता है तथा इस स्थित काया से तूं पाप करता है यह तो महाधूर्तों का, दानवों का कार्य है।
मौरे छुरी न धारू लोह न सारूं, न हथियारूं।
जब वीदा कुछ नम्रता को प्राप्त हुआ तब कहने लगा कि आप इस भयंकर वन में रहते हैं आपके पास कोई हथियार तो अवश्य ही होगा, यदि नहीं होगा तो आपको जरूर रखना चाहिए। यह शंका उत्पन्न होने पर जम्भेश्वर जी ने कहा- मेरे पास लोहे की बनी हुई धारीदार-पैनी छुरी या
अन्य हथियार नहीं है। तब वीदे की शंका ने आगे पैर पसारा कि आखिर आपके शत्रु क्यों नहीं? आगे जम्भेश्वर जी बतलाया-
सूरज को रिप बिहंडा नाही, तातैं कहा उठावत भारूं।
हे वीदा! सूर्य का शत्रु जुगनूं- आगिया नहीं हो सकता क्योंकि शत्रुता तथा मित्रता ये दोनों बराबर वालों में ही होती है। इसलिए मैं तो सूर्य के समान हूं तथा अन्य संसारिक शत्रु लोग तो जुगनूं के समान ही हैं। सूर्य जब तक उदय नहीं होता तब तक ही जुगनूं चम चम करता है। सूर्य उदय होने पर तो लुप्त हो जाता है इसलिए मैं यह शस्त्र रूपी लोहे का भार क्यों उठाऊं। क्योंकि मेरा शत्रु कुछ भी नहीं कर सकता तो शरीर की रक्षा के लिए मैं भार क्यों उठाऊं।
जिहिं हाकणड़ी बलद जूं हाकै, न लोहै की आरूं।
मेरे पास तो जो बैल हांकने की साधारण लकड़ी होती है उसके अग्र भाग में लोहे की छोटी सी कील लगी रहती है उसके बराबर भी लोहे का शस्त्र नहीं है।