श्री गुरु जम्भेश्वर शब्दवाणी (शब्द 67) || Shri Guru Jambheshwar Shabdvani (Shabd 67) || Bishnoism
सबद-67 (शुक्ल हंस)
ओ३म श्री गढ़ आल मोत पुर पाटण भुंय नागोरी,म्हे ऊंडे नीरे अवतार लीयो।
सरलार्थ:
संसार के सभी गढ़ों में भगवान विष्णु का धाम वैकुण्ठ लोक सर्वश्रेष्ठ गढ़ है। उसी श्री गढ़ से आल-हाल चल करके इस मृत्यु लोक में आया हूं तथा इस मृत्युलोक में भी नागौर की भूमि में स्थित पींपासर में जो भूमि ग्रामपति लोहट पंवार क्षत्रिय के अधिकार में है यह उतम भूमि है जहां पर अत्यधिक गहराई में जल मिलता है। उस उत्तम जल वाले देश में मैने अवतार लिया है। अर्थात् उस परम धाम को अकस्मात छोड़कर इस भूमि में मुझे आना पड़ा है। आगे यहां पर आने का मुख्य कारण बतला रहे है।
अठगां ठंगण अदगां दागण, अगजा गंजण, ऊनथ नाथन, अनू निवावण।
जो पुरूष पाखण्ड करके दूसरों को ठगते है, किन्तु स्वयं किसी अन्य से नहीं ठगे जा सकते ऐसे ऐसे चतुर लोगों को ठगने के लिये अर्थात् उनकी ठग-पाखण्ड विद्या हरण करने के लिये, जिसने अब तक धर्म का दाग-चिह्न विशेष धारण नहीं किया है उन्हें धर्म के चिह्न से चिह्नित करके सद्मार्ग में लाने के लिये, जो दूसरों के तो सच्चे धर्म का भी अपनी बुद्धि चातुर्य से खण्डन कर देते है तथा अपने झूठे पाखण्डमय धर्म मार्ग को भी अपने स्वार्थ वश सत्य बतलाते है ऐसे लोगों का विश्वास नाश करने के लिये, उद्दण्डता से अपनी इच्छानुसार विचरण करने वाले लोगों के मर्यादा रूपी नाथ डालने के लिये और अभिमान में जकड़े हुऐ लोग जो किसी के सामने सिर झुकाना नहीं जानते| नम्रता, शीलता नहीं जानते उन्हें झुकाने के लिये नम्रशील बनाने के लिये मैं यहां मरू भूमि में आया हूं।
कांहि को मैं खैंकाल कीयों, कांही सुरग मुरादे देसां, कांही दौरे दीयूं।
यहां पर आकर मैने किसी को तो समय समय पर नष्ट ही कर दिया अर्थात् कृष्ण नृसिंह आदि रूप में तो दुष्टों को नष्ट ही किया तथा किसी सज्जन ज्ञानी ध्यानी भक्त पुरूष को तो उसकी इच्छा व कर्मानुसार स्वर्ग या मोक्ष की प्राप्ति करवाई। यह इस समय भी तथा इससे पूर्व अवतारों में भी और अन्य किसी को भयंकर नरक भी दिया क्योंकि उन लोगों के कर्म ही ऐसे ही थे। इसलिये कर्म करना मानव के अधीन है। किन्तु फल देना ईश्वर के अधीन है।
होम करीलो दिन ठाविलो, सहस रचीलो, छापर नीबी दूणपूरूं।
गांव सुंदरियो छीलै बालदियो, छन्दे मन्दे बाल दीयों।
हे वीदा! तूं अपने आदमियों को दिन निश्चित करके जहां जहां पर भेजेगा मैं वहीं हजारों रूप धारण करके यज्ञ करता हुआ दिखाई दूंगा। बीदा हजारों जगहों पर तो नहीं भेज सका किन्तु जहां जहां पर भेजा गया था वहां वहां पर बतलाते है। जैसे छापर, नीबी, द्रोणपुर, सुन्दरियो, चीलो बालदियो, छन्दे, मन्दे बालदियो
तथा
अजम्हे होता नागो बाड़ै, रैण थंभै गढ़ गागरणों।
अजमेर, नागौर, बाड़ै, रैण थंभौर, गढ़ गांगरणों, कुं कुं कश्मीर, कंचन,कच्छ, सौराष्ट्र महाराष्ट्र, मेरठ , तिलंग, तेलंगाना, तैलंगुदेश, द्वीप,रामेश्वरम्, गढ़ गागरोन तथा और भी।
गढ़ दिल्ली कंचन अर दुणायर, फिर फिर दुनिया परखे लीयो। थटे भवणिया अरू गुजरात, आछो जांई सवा लाख मालवै। पर्वत मांडू मांही ज्ञान कथूं।
दिल्ली गढ़,कंचन नगरी और देहरादून आदि स्थानों में यज्ञ किया है मैने वहां व्यापक भ्रमण किया है और लोगों को जांचा-परखा है तथा थट्ट, बांभणियां, गुजरात,आछो जाई, श्यालक , मालवा, पर्वत, मांडू, जैसलमेर इत्यादि स्थानों में जाकर ज्ञान का कथन किया। उन लोगों को चेताया है। ,,
खुरासाण गढ़ लंका भीतर, गूगल खेऊं पैर ठयो।
ईडर कोट उजैणी नगरी, काहिंदा सिंध पुरी विश्राम लीयो।
खुरासाण तथा लंका में जाकर वहां पर हवन किया और हवन समाप्ति पर अंगारों पर गूगल चढ़ाया था। जिससे वहां का वातावरण पवित्र हुआ था। ईडर गढ़, उज्जयिनी नगरी तथा कुछ समय तक समुद्र किनारे बसी हुई जगन्नाथ पुरी में भी विश्राम किया था।
कांय रे सायरा गाजै बाजै, घुरै घुर हरै करै इवांणी आप बलूं।
किहिं गुण सायरा मीठा होता, किहिं अवगुण हुआ खार खरूं।
(जब श्री देवजी जगन्नाथपुरी समुद्र के किनारे विराजमान थे। उसी समय ही वहां पर लोगों में एक महामारी फैल गई। जिसको वहां की स्थानीय भाषा में गूडिचा कहते है। इधर शीतला चेचक कहते है लोग आकर जम्भदेवजी से प्रार्थना करने लगे तब उन लोगों को अभिमंत्रित जल-पाहल पिलाया, जिससे उनकी बीमारी मिट गई। उसी महान घटना की यादगार में मन्दिर बनाने की प्रार्थना उन लोगों ने गुरुदेव से की। तब उन्हें मन्दिर बनाने की आज्ञा तो दी परन्तु उसमें कोई मूर्ति विशेष रखने की मनाही कर दी। अब भी जगन्नाथपुरी में वह मन्दिर ज्यों का त्यों विद्यमान है। वह मन्दिर जम्भेश्वर महादेव के नाम से प्रसिद्ध है। जो जगन्नाथ जी के मुख्य मन्दिर से थोड़ी दूरी पर उतर पश्चिम में स्थित है। वहां पर पंच महादेवों में एक जम्भेश्वर महादेव है। जिनकी मूर्ति जगन्नाथ जी के मुख्य मन्दिर के पास एकसे थोड़ी दूरी पर उतर पश्चिम में स्थित है। वहां पर पंच महादेवों में एक जम्भेश्वर महादेव है। जिनकी मूर्ति जगन्नाथ जी के मुख्य मन्दिर के पास एक छोटा सा मन्दिर है उसमें रखी हुई है। उन स्वर्ण मूर्तियों पांचों में एक जम्भेश्वर महादेव है। मेरे कहने का भाव यही है कि कोई जगन्नाथ जी जाये तो अवश्य ही देखकर जानकारी करके आवें। मैने देखा तो अवश्य ही था किन्तु समयाभाव के कारण पूरी जानकारी प्राप्त नहीं कर सका।) श्री देवजी वीदे से कह रहे है - हे वीदा! मैने उस जगन्नाथपुरी के समुद्र को देखा है तथा उसकी महान ऊंची ऊंची लहरों को भी देखा है। वे लहरें दूर से अत्यधिक भयावनी लगती है स्नानार्थी को डरा देती है। किन्तु जब हिम्मत करके अन्दर पहुंच जाता है तो वे लहरें कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती, बाहर लाकर छोड़ देती है। मित्रवत् व्यवहार करती है गुरु जाम्भोजी कहते है कि
उस समय मैने समुद्र से पूछा था कि हे सायर! तुं क्यों गर्जना करके यह व्यर्थ की ध्वनि करता है। इस घुर घुराने से तो तेरा अभिमान ही बढ़ेगा किन्तु बल घटेगा। जब तूं बलहीन हो जायेगा तो फिर क्या कर सकेगा तथा यह भी बता कि पहले तेरे में कौनसा गुण था जिस कारण तूं मीठा था और फिर कौनसा अवगुण हो गया जिससे तूं खारा हो गया। जब तेरे में अभिमान नहीं था तो तूं मधुर अमृतमय था और जब अभिमान आ गया तो कड़वा हो गया। मानव के लिये भी यही नियम लागू होता है।
जद वासग नेतो मेर मथाणी, समंद बिरोल्यो ढ़ोय उरू। रैणायर डोहण पाणी पोहण, असुरां बेधी करण छलूं।
देव दानवों ने मिलकर समुद्र मन्थन द्वारा अमृत प्राप्ति का प्रयत्न किया था। उस समय वासुकि नाग की तो रस्सी बनायी थी। सुमेरू पर्वत की मथाणी-झेरणा बनाया था तथा देव दानवों ने मिलकर मंथन प्रारम्भ किया तो वह मथानी वजनदार होने से देव दानव नहीं संभाल सके थे। नीचे धरती पर जाकर टिक गई थी, तब दोनों पक्षों ने ही जाकर भगवान विष्णु से पुकार की थी। उस समय भगवान विष्णु ने कछुवे का रूप धारण करके सुमेरू रूपी मथानी को उठा लिया था। फिर मन्थन कार्य चलने लगा तब समुद्र से अनेकानेक दिव्य रत्न निकलने लगे किन्तु उन पर असुरों ने कुछ भी ध्यान नहीं दिया। जिस कारण से अनेक रत्न तो देवताओं को प्राप्त हो चुके थे। चैदहवां रत्न अमृत निकला उसके लिये देव-दानव आपस में बंटवारा नहीं कर सके। उसके लिये भगवान ने मोहिनी रूप धारण करके अमृत देवताओं को पिलाकर अमर करना चाहते थे। किन्तु राहु दैत्य भी पी चुका था वह भी अमर हो चुका था। भेद खुलने पर देवताओं ने सिर काट डाला , तब एक के दो हो गये। अब भी राहु और केतु ये दोनों अमर है। सूर्य और चन्द्रमा को समय समय पर ग्रसित करते हैं। जब समुद्र से अमृत निकाल लिया तो पीछे कड़वा ही शेष रह गया। इसलिये हे वीदा! वह इतना महान अमृतमय समुद्र भी अभिमान करने से अमृत खो बैठा और दयनीय दशा को प्राप्त हो गया। उसके सामने तेरी क्या औकात है। तेरा भी यह अभिमान करना व्यर्थ ही है और भी ध्यान पूर्वक श्रवण कर। ,,
दहशिर ने जद वाचा दीन्ही, तद म्हे मेल्ही अनंत छलूं।
दहशिर का दश मस्तक छेद्या, ताणूं बाणूं लड़ूं कलूं।
लंकापति रावण ने प्रथम कठोर तपस्या की थी और शिव को तपस्या द्वारा प्रसन्न करके वरदान प्राप्त किया था। गुरु जाम्भोजी कहते है कि उस समय वरदान देने वाला भी मैं ही था तथा रावण का राज्य विशालता को प्राप्त हो चुका था। तब मैं राम रूप में सीता लक्ष्मण सहित वन में आ गया था और मैने ही रावण को छलने के लिये सीता को भेजा था।रावण जबरदस्ती नहीं ले गया था।रावण को मारने के लिये सीता को तो निमित बनाया था।वैसे बिना अपराध किये रावण को कैसे मार सकते थे। सीता वापसी के बहाने से मैने रावण के वरदान स्वरूप प्राप्त दश सिरों को बाणों द्वारा काट डाला था तथा रावण सहित पूरे परिवार को तहस-नहस कर डाला था।
सौखा बाणूं एक बखांणू,जाका बहू परवाणू,जिसका राखूं तास बलुं|
जब रावण को मारने के लिये चढ़ाई की थी तब बीच में समुद्र आ गया था। तीन दिनों तक प्रतीक्षा करने पर भी वह दुष्ट नहीं माना तो फिर धनुष पर बांण का संधान कर लिया था और उसे सुखाने का विचार पक्का ही हो गया था।उस समय समुद्र अपनी सठता भूल कर हाथ जोड़कर सामने उपस्थित हुआ था। इसका बहुत प्रमाण है। यदि तुझे विश्वास नहीं है तो शास्त्र उठाकर देख ले। उस सठ समुद्र तथा रावण ने अपना बल निश्चित ही तोल करके देखा था तथा उस अभिमान के बल पर ही गर्व किया करते थे। किन्तु उन दोनों का ही गर्व चूर-चूर कर डाला था। हे वीदा!जब रावण एवं समुद्र का अभिमान स्थिर नहीं रह सका, अहंकार के कारण दोनों को ही लज्जित होना पड़ा तो तेरी कितनी सी औकात है। किसके बल पर तूं अभिमान करता है।
राय विष्णु से वाद न कीजै, कांय बधारो दैत्य कुलूं।
म्हे पण म्हेई थे पण थेई, सा पुरूषा की लच्छूं कुलूं।
हे वीदा!तुम्हारे सामने प्रत्यक्ष देवाधिदेव विष्णु विराजमान है। व्यर्थ का वाद विवाद न करो। ऐसा करके दैत्य कुल को क्यों बढ़ाता है। तुम्हारे देखा देखी और कितने मानव से दानव हो जायेंगे। फिर तूं जानता है कि दानवों की क्या गति हुई है और क्या हो रही है। हम तो अपनी जगह पर हम ही है। तूं हमारी बराबरी नहीं कर सकता और तूं अपनी जगह पर तूं ही है। हम लोगों को तुम अपने जैसा नहीं बना सकता। उन महापुरूषों के तो लक्षण बहुत ऊंचे थे। जिसका तूं नाम लेता है वे तेरे सदृश अधम नहीं थे।
गाजै गुड़कै से क्यू वीहै, जेझल जाकी संहस फणूं।
मेरे माय न बाप न बहण न भाई, साख न सैण न लोक जणों।
तुम्हारे इस प्रकार के झूठे गर्जन तर्जन से कौन डरता है तथा डरने का कोई कारण भी नहीं है क्योंकि तुम्हारे पास कुछ शक्ति तो है ही नहीं केवल बोलना ही जानता है। जिसके पास शेष नाग के हजारों फणों की फुत्कार के सदृश शक्ति की ज्वाला है, वह तेरे इस मामूली क्रोध की ज्वाला से भयभीत कभी नहीं होगा। कोई सामान्य गृहस्थ जन हो सकता है तेरे से कुछ भयभीत हो जाये क्योंकि उसका अपना परिवार घर हैं उनको तूं कदाचित उजाड़ भी सकता है। किन्तु जिसके माता-पिता, बहन-भाई, सखा, सम्बन्धी कोई नहीं है। उसका तूं क्या बिगाड़ेगा।
वैकुण्ठे विश्वास विलंबण, पार गिराये मात खिणूं।
विष्णु विष्णु तूं भण रे प्राणी, विष्णु भणन्ता अनन्त गुणूं।
हम तो वैकुण्ठ लोक के निवासी है। ऐसा तूं विश्वास कर तथा उस अमर लोक की प्राप्ति का प्रयत्न कर। जिससे तेरा सदा के लिये जन्म-मरण का चक्कर छूट जायेगा। इस अवसर को प्राप्त करके भी मृत्यु को प्राप्त न हो जाना। कुछ शुभ कमाई कर लेना। हे प्राणी! विष्णु के पास परम धाम में पहुंचने के लिये उसी परमात्मा विष्णु का स्मरण कर। उसका स्मरण भजन करने में अनन्त फलों की प्राप्ति होती है। विष्णु के भजन से परम पुरूषार्थ रूप मोक्ष की प्राप्ति होती है। यही अनन्त फल है।
सहंसै नावै, सहंसै ठावे, गाजे बाजै, हीरे नीरे|
गगन गहीरे चवदा भवणें, तिहू तृलोके, जम्बू दीपे, सप्त पताले।
विषलृ-व्यापके, धातु से विष्णु शब्द की व्युत्पति होती है अर्थात् विवेष्टि व्यापनोति इति विष्णु‘‘ जो सर्वत्र कण कण में सता रूप से व्यापक हो वही विष्णु है ऐसे विष्णु के स्मरण करने का अर्थ हुआ कि सर्वत्र सता के साथ सम्बन्ध स्थापित कर लेना है। उसी सता को गुरुदेवजी सर्वत्र बताते हुऐ कहते है कि उस विष्णु रूप सता के हजारों अनगिनत नाम है हजारों अनन्त स्थान है तथा उसी प्रकार से उतने ही गांव है और भी सता व्यापक होती हुई गर्जना, वाद्यों, हीरे, जल, गगन, गंभीर समुद्र मे तथा चवदा भवनों में तीनों लोकों मे तथा इस जम्बूदीप में और सप्त पातालों में उसकी सता विद्यमान है।
अई अमाणों तत समाणों, गुरु फरमाणों, बहु परमाणों।
अइयां उइयां निरजत सिरजत।
इस पंच भौतिक जड़मय शरीर में वह ज्योति स्वरूप तत्त्व समाया हुआ है। उस परम तत्त्व की ज्योति से ही यह सचेतन होता है। यह गुरु परमात्मा का ही कथन है। इसलिये सत्य है। इसमें बहुत ही शास्त्र वेद पुराण आप्त पुरूष प्रमाण है। यह जड़ चेतन मय संसार उसी परम तत्व रूपी परमात्मा की सृजन कला का कमाल है और उसकी ही जब वापिस समेटने की इच्छा होगी तो वह वापिस लय को भी प्राप्त हो जायेगा। वह भी उसी की ही करामात है।
नान्ही मोटी जीया जूणीं, एति सास फुरंतै सारूं।
कृष्णी माया घन बरषंता, म्हे अगिणि गिणूं फूहारूं।
इस विश्व में कुछ छोटी तथा कुछ बड़ी जीवों की जातियां है। छोटी जाति की उत्पत्ति स्थिति तथा मृत्यु का काल अत्यल्प होता है और बड़ी जाति जैसे मानवादिक का समय अधिक होता है। गुरु जम्भेश्वर जी कहते हैं कि मैं अपनी माया द्वारा इनका सृजन करता हूं। किन्तु उत्पत्ति में समय तो एक श्वांस बाहर निकलना और अन्दर जाने का ही लगता है अर्थात् जीवन और मृत्यु के बीच का फैसला तो एक श्वांस का ही होता है। यदि श्वांस आ गया तो जीवन है, नहीं आया तो मृत्यु है। जिस प्रकार से कृष्ण परमात्मा की माया बादलों द्वारा जल बरषाती है किन्तु अनगिनत बूंदें भी गिन गिनकर डाली जाती है अर्थात् जहां जितना बर्षाना है वहां उतना ही बर्षेगा न तो कम और न ही ज्यादा। उसी प्रकार से सृष्टि की छोटी-मोटी जीया जूणी भी पानी की बूंदों की तरह अनगिनत होते हुए भी परमात्मा के द्वारा गिनी जाती है। परमात्मा की दृष्टि से बाह्य कुछ भी नहीं है।
कुण जाणै म्है देव कुदेवों, कुण जाणै म्है अलख अभेवों। कुण जाणें म्है सुरनर देवों, कुण जाणै म्हारा पहला भेवों।
वीदे द्वारा जब वस्त्र विहीन करके यह देखने का प्रयत्न किया गया कि ये स्त्री है या पुरूष है। तब इस प्रसंग का इस प्रकार से निर्णय करते हुऐ कहा कि कौन जानता है कि मैं देव हूं या कुदेव हूं। कौन जानता है कि मैं अलख हूं या लखने योग्य हूं। यह भी कौन जान सकता है कि मैं देवाधिदेव भगवान विष्णु हूं या सामान्य देवता हूं। तुम्हारे पास मेरा आदि व अन्त जानने का भी क्या उपाय है।
कुण जाणै म्हे ग्यानी के ध्यानी, कुण जाणै म्हे केवल ज्ञानी। कुण जाणे म्हे ब्रह्म ज्ञानी, कुण जाणें म्है ब्रह्माचारी।
बुद्धि द्वारा अगम्य को कैसे जाना जा सकता है। इसलिये मैं ज्ञानी हूं या ध्यानी हूं। इस बात को तुम नहीं जान सकते। मैं केवल ज्ञानी हूं या अज्ञानी हूं। यह तुम किस प्रकार से जान पाओगे। मैं ब्रह्मज्ञानी हूं या ब्रह्मचारी हूं यह तुम्हारे समझ से बाहर की बात है।ध्यान रहे कि इन विषयों को केवल जाना नहीं जा सकता तदनुसार जीवन बनाया जाता है। न ही केवल बुद्धि द्वारा जानने से रस आ सकेगा।
कुण जाणै म्हे अल्प अहारी, कुण जाणै म्हे पुरूष क नारी। कुण जाणै म्हे बाद विवादी, कुण जाणै म्हे लुब्ध सवादी।
यह कौन जानने का दावा करता है और बता सकता है कि मैं कम भोजन करने वाला हूं या निरहारी हूं या अधिक भोजन करने वाला हूं। मैं पुरूष हूं या नारी यह भी तुम कैसे जान सकते हो, कौन जानता है कि मैं वाद विवादी हूं या लोभी हूं या सत्य मितभाषी हूं या बकवादी हूं।
कुण जाणै म्हे जोगी के भोगी, कुण जाणै म्हे आप संयोगी। कुण जाणै म्हे भावत भोगी, कुण जाणै म्है लील पती।
कौन जानता है कि मैं योगी हूं या भोगी हूं। यह भी कौन जान सकता है कि मैं दुनिया से सम्बन्ध रखनेवाला हूं या निर्लेप हूं। कौन जान सकता है कि मैं जितना चाहता हूं उतना ही मुझे भोग्य वस्तु प्राप्त है या नहीं। यह सांसारिक सामान्य व्यक्ति नहीं जान सकते है कि मैं इस संसार का स्वामी हूं।
कुण जाणें म्हे सूम क दाता, कुण जाणें म्हे सती कुसती। आपही सूम र आप ही दाता, आप कुसती आप सती।
कौन जानता है कि मैं सूम कंजूस हूं या महान दानी हूं तथा यह भी कौन जान सकता है कि मैं सती हूं या कुसती हूं। मैं क्या हूं इस विचार को छोड़ो और जो मैं कहता हूं इस पर विचार करोगे तो सभी समस्या स्वतः ही सुलझ जायेगी और यदि विना कुछ धारण किये केवल बौद्धिक अभ्यास ही करते रहोगे तो कुछ भी नहीं समझ पाओगे। इसलिये गुरुदेव कहते है कि मैं ही सभी कुछ हू और सभी कुछ होते हुऐ भी कुछ भी नहीं हूं।मैं ही सूम और मैं ही दाता हूं और मैं ही सती रूप में ही तथा कुसती भी मैं ही हूं। जैसा जो देखता है मैं उसके लिये वैसा ही हूं। चाहे तो मुझे जिस रूप में देखें वह तो उसकी दृष्टि पर निर्भर करता है।
नव दाणूं निरवंश गुमाया, कैरव किया फती फती।
मैने समय समय पर अनेको अवतार धारण करके धर्म की स्थापना की है तथा राक्षसों का विनाश किया है। उनमें नौ राक्षस अति बलशाली थे। वे कुम्भकरण, रावण, कंस, केशी, चण्डरू, मधु, कीचक, हिरणाक्ष तथा हिरण्यकश्यपु। इनके लिये विशेष अवतार लेने पड़े तथा कैरव समाज जो साथ में मिल करके उपद्रव किया करते थे। उनको भी बिखेर दिया। मृत्यु के मुख में पहुंचा दिया। यह तो कृष्ण का एक राजनैतिक योद्धा का रूप था।
राम रूप कर राक्षस हडि़या, बाण के आगे वनचर जुडि़या। तद म्हे राखी कमल पती, दया रूप म्हे आप बखाणां। संहार रूप म्हे आप हती।
राम रूप धारण करके मैने अनेकानेक राक्षसों को मारा और लंका में जाकर रावण को मारने के लिये बाण खींचा था। तब भी हनुमान सुग्रीव आदि वानर सेना मेरे आगे आकर सेना के रूप में जुड़ गयी थी तथा उस भयंकर संग्राम में भी कमल फूल सदृश कोमल स्वभाव वाले विभीषण एवं कमला सीता की उन राक्षसों से रक्षा की थी। वे मदमस्त हाथी सदृश उन कोमल कमल कलियों को कुचलना चाहते थे।मेरे दोनों ही रूप प्रसिद्ध है।जब मैं दया करता हूं तो परम दयालु हो जाता हू और राक्षसों से जब मैं युद्ध करता हूं तो महाभयंकर हत्यारा हो जाता हूं।
सोलै सहंस नवरंग गोपी, भोलम भालम टोलम टालम। छोलम छालम, सहजै राखीलों, म्हे कन्हड़ बालो आप जती।
भैमासुर ने सोलह हजार गोपियों को जेल में डाल दिया था और यह प्रण कर रखा था कि जब बीस हजार हो जायेगी तब इनसे विवाह करूंगा। वे कन्यायें ही थी, गोप बालाएं, भोली-भाली थी तथा सभी साथ में रहकर मेल-मिलाप वाली थी। अब तो उनके खेलने का , शारीरिक मानसिक विकास करने का समय था। किन्तु दुष्ट भौमासुर ने उन्हें कैदी जीवन जीने के लिये मजबूर कर दिया था। मैने भोमासुर को मार करके उन्हें सहज में ही मुक्त करवा दी थी तथा उन्हें शरण भी प्रदान की थी। वे गोपियां मुझे पति परमेश्वर के रूप में स्वीकार कर चुकी थी। फिर भी मैं कृष्ण रूप में यति बाल ब्रह्मचारी रूप में ही था। इतनी पत्नियां होते हुऐ भी कृष्ण का बाल ब्रह्मचारी होना यह ईश्वरीय करामात ही है।
छोलवियां म्हे तपी तपेश्वर, छोलब कीया फती फती। राखण मतां तो पड़दै राखां, ज्यूं दाहै पांन बणास पति।
उन गोपियों के साथ रमण करने वाला मैं स्वयं तपस्वियों का तपस्वी हूं। वही गोप ग्वाल बालों का प्रिय मैं जब उनके साथ खेल खेला करता था तब तो मण्डली जुड़ी थी किन्तु मैं जब वृन्दावन को छोड़कर चला गया तो पुनः उस मण्डली को भिन्न भिन्न कर दिया यही तोड़ फोड़ करने वाला मैं यदि रक्षा करना चाहूं तो भयंकर अग्नि में से एक सूखे पते की भी रक्षा कर सकता हूं और यदि मैं न चाहूं तो रक्षा के सभी उपाय निष्फल हो जाते हैं।
साभार-जंभसागरद्वारा: स्वामी कृष्णानन्द जीप्रकाशक: जाम्भाणी साहित्य अकादमी |