श्री गुरु जम्भेश्वर शब्दवाणी ( शब्द ३) || Shri guru jambheshwar shabdvani (Shabd 3) || Bishnoism

श्री गुरु जम्भेश्वर शब्दवाणी ( शब्द ३) || Shri guru jambheshwar shabdvani (Shabd 3) || Bishnoism 


ओ3म् मोरें अंग न अलसी तेल न मलियों, ना परमल पिसायों।

 हे वीदा! मेरे इस शरीर पर किसी भी प्रकार का अलसी आदि का सुगन्धित तेल या अन्य पदार्थ का लेपन नहीं किया गया है क्योंकि मैं यहां सम्भराथल पर बैठा हुआ हूं। यहां ये सुगन्धित द्रव्य उपलब्ध भी नहीं है और न ही इनकी मुझे आवश्यकता ही है।

जीमत पीवत भोगत विलसत दीसां नाही, म्हापण को आधारूं। 

पृथ्वी का गुण गन्ध है जो भी पार्थिव पदार्थों का शरीर रक्षा के लिये सेवन करेगा, उस शरीर में दुर्गन्ध अवश्य ही आएगी किन्तु जम्भेश्वर जी कहते हैं कि हे वीदा! मुझे इस शरीर रक्षार्थ इन पृथ्वी आदि पांच द्रव्यों की आवश्यकता नहीं पड़ती क्योंकि परमात्मा तो सभी का आधार है, परमात्मा का आधार कोई नहीं होता है। वह परमात्मा पंच भौतिक शरीर धारण करता है। तो भी अन्य सांसारिक जनों की भांति खाना-पीना भोग विलास आदि नहीं करता, वे अत्यल्प आवश्यकतानुसार आहार यदि करते हैं तो वह आहार दुर्गन्ध आदि विकार उत्पन्न नहीं कर सकता। इसलिए हमारा शरीर सुगन्ध वाला है न कि दुर्गन्ध वाला।

अड़सठ तीर्थ हिरदै भीतर, बाहर लोका चारूं। 

अड़सठ स्थानों में प्रसिद  तीर्थ तो बाह्या न होकर ह्रदय के भीतर ही हैं अर्थात् जिस प्रकार से अड़सठ तीर्थ ह्रदय में प्रवाहित होते हैं, योगी लोग उनमें स्नान करते हैं उसी प्रकार से चेतन सत्ता भी ह्रदय देश में प्रत्यक्ष रूपेण रहती है, उसमें ही जो रमण करेगा उसके शरीर में कैसी दुर्गन्ध, वह ज्योतिर्मय ईश्वर तो सदा सर्वदा सुगन्धमय ही है तथा जिनकी वृत्ति बाह्या शरीर में ही विचरण करती है। परमात्मा की झलक से वंचित हो चुकी है तथा बाह्या पदार्थों का आश्रय ग्रहण किया है ऐसे जनों का शरीर दुर्गन्धमय ही होगा। इसलिए हे वीदा! मैं तो अड़सठ तीर्थों में स्नान नित्य प्रति करता ही हूं, यहां पर सांसारिक जनों की भांति व्यवहार तो मेरा लोकाचार ही है। नान्ही मोटी जीया जूणी, एति सांस फूंरंतै सारूं। सृष्टि के छोटे तथा बड़े, जीवों की उत्पत्ति , स्थिति तथा प्रलय के बीच का समय एक श्वांस का ही होता है। जितना समय श्वांस के आने तथा जानें में लगता है, उतनें ही समय में परमात्मा सम्पूर्ण जीवों की सृजना कर देते हैं वह सृजन कर्ता  मैं ही हूं।

 वासंदर क्यूं एक भणिजै, जिहिं के पवन पिराणों|

 यहां पर उपर्युक्त वचनों को श्रवण करने पर वीदा के अन्दर कुछ क्रोध  उत्पन्न हो गया, इसलिए जम्भेश्वर जी ने कहा- हे वीदा! तूं एकमात्र क्रोध रूपी अग्नि को ही क्यों बढ़ावा देता है। यह क्रोध तुम्हारे लिए विनाशकारी है। अग्नि और क्रोध में सादृश्यता बताते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार से अग्नि की प्राण वायु होती है उसी प्रकार से क्रोध  का प्राण भी वायु रूप झट से निकला हुआ कठोर वचन होता है।

आला सूका मेल्है नाही, जिहिं दिश करै मुहाणों। 

जब अग्नि प्रज्ज्वलित हो जाती है तब न तो हरी वनस्पति को छोड़ती है और न ही शुष्क वनस्पति को छोड़ता और न ही निर्दोषी का ख्याल करता, विवेक शून्य होकर दोनों पर बराबर ही अपराध कर देता है। अग्नि तथा क्रोध दोनों ही जिस तरफ भी बढ़ेंगे उस तरफ तबाही मचा देंगे।

पापे गुन्है वीहे नाही, रीस करै रीसाणों।

 अग्नि तथा क्रोधदोनों ही जिस तरफ भी बढ़ेंगे अर्थात् जिस व्यक्ति को भी अपना लक्ष्य बनाएंगे उस समय न तो उसे पापी का ज्ञान रहेगा और न ही गुणी का ज्ञान रहेगा। क्रोध  में व्यक्ति जब क्रोधित हो जाता है तो निर्णय लेने में असमर्थ हो जाता है, उसका कर्तव्य - अकर्तव्य  का विवेक भ्रष्ट हो जाता है।

बहूली दौरे लावण हारू, भावै जाण मैं जाणूं।

 यह क्रोध ही सभी दुर्गुणों की जड़ है। एक क्रोध से ही सभी दुर्गुण उत्पन्न हो जाते हैं और ये दुर्गुण बार-बार नरक में ले जाने वाले होते हैं। इस जीवन में दुःखों को भोगते हैं तथा परलोक भी दुःखमय बन जाता है। अग्नि हाथ में चाहे जान कर ले या अनजान में ले वह तो जलाएगी ही। इस प्रकार से क्रोध भी चाहे जानकर करें या अनजान
में करें वह तो दुःखित करेगा ही।

 न तूं सुरनर न तूं शंकर, न तू राव न राणों।

 हे वीदा! न तो तूं देवता है और न ही तूं मानव है, तथा न ही तूं शंकर है, न तूं राजा है, और न ही तूं राणा है।
काचै पिण्ड अकाज चलावै, महा अधूरत दाणों।
तेरा यह शरीर तो कच्चा है इस पर तूं इतना अभिमान क्यों करता है यह कभी भी टूट सकता है तथा इस स्थित काया से तूं पाप करता है यह तो महाधूर्तों का, दानवों का कार्य है।

मौरे छुरी न धारू लोह न सारूं, न हथियारूं।

जब वीदा कुछ नम्रता को प्राप्त हुआ तब कहने लगा कि आप इस भयंकर वन में रहते हैं आपके पास कोई हथियार तो अवश्य ही होगा, यदि नहीं होगा तो आपको जरूर रखना चाहिए। यह शंका उत्पन्न होने पर जम्भेश्वर जी ने कहा- मेरे पास लोहे की बनी हुई धारीदार-पैनी छुरी या
अन्य हथियार नहीं है। तब वीदे की शंका ने आगे पैर पसारा कि आखिर आपके शत्रु क्यों नहीं? आगे जम्भेश्वर जी बतलाया-

 सूरज को रिप बिहंडा नाही, तातैं कहा उठावत भारूं।

 हे वीदा! सूर्य का शत्रु जुगनूं- आगिया नहीं हो सकता क्योंकि शत्रुता तथा मित्रता ये दोनों बराबर वालों में ही होती है। इसलिए मैं तो सूर्य के समान हूं तथा अन्य संसारिक शत्रु लोग तो जुगनूं के समान ही हैं। सूर्य जब तक उदय नहीं होता तब तक ही जुगनूं चम चम करता है। सूर्य उदय होने पर तो लुप्त हो जाता है इसलिए मैं यह शस्त्र रूपी लोहे का भार क्यों उठाऊं। क्योंकि मेरा शत्रु कुछ भी नहीं कर सकता तो शरीर की रक्षा के लिए मैं भार क्यों उठाऊं।

 जिहिं हाकणड़ी बलद जूं हाकै, न लोहै की आरूं।

 मेरे पास तो जो बैल हांकने की साधारण लकड़ी होती है उसके अग्र भाग में लोहे की छोटी सी कील लगी रहती है उसके बराबर भी लोहे का शस्त्र नहीं है।

साभार-जंभसागर
व्याख्या: स्वामी कृष्णानन्द आचार्य
प्रकाशक: जाम्भाणी साहित्य अकादमी 

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