श्री गुरु जम्भेश्वर शबदवाणी (शब्द 01) || Shri Guru Jambheshwar Shabadvani (Shabad 01) || Bishnoism
सात वर्ष की आयु में खेमनराय पुरोहित के प्रति यह प्रथम शब्दोच्चारण गुरू जम्भेश्वर जी ने किया
सबद 1- ओ3म् गुरु चीन्हों गुरु चीन्ह पुरोहित, गुरु मुख धर्म बखाणी।
भावार्थ- ओउम् यह परम पिता परमात्मा सर्वेश्वर अनादि निराकार भगवान विष्णु का ही परम प्रिय नाम है। नाम से ही नामी का ज्ञान होता है। सर्वप्रथम सृष्टि के आदि काल में तो वह परम सत्ता ओ3म् नाम से ही जानी जाती थी परन्तु आगे समयानुसार ही सत्ता शिव, राम, विष्णु आदि नामों से जानी जाने लगी। उपनिषद् में कहा भी है - ओमिति एकाक्षर ब्रह्या उद्गीथमुपासीत गीता में - ‘ओमित्येकाक्षर ब्रह्या व्यवहारन् मामनुस्मरन्’ पातंजलि ने कहा- ‘तस्य वाचक प्रणवः’ इत्यादि निर्देश दिये गये हैं। ओ3म् का ध्वनि से उच्चारण किया जाता है तब वह परमात्मा अति प्रसन्न होता है क्योंकि वह परमात्मा का सर्वाधिक प्रिय नाम है, इसलिए शब्दों के प्रारम्भ में यह ओ3म् का पाठ देना उचित ही है। इससे मंगल स्तुति नमस्कारादि सभी नियमों का समुचित पालन हो जाता है। गुरु ‘श्री देवजी कहते हैं- हे संसार के लोगो! आप सभी लोग सर्वदा ही यदि अपना कल्याण चाहते हैं तो उस परमपिता परमात्मा परमेश्वर परम सत्ता ओ3म् नामी गुरु को पहचानो। यहां पर चिन्हो का अर्थ मानना या स्मरण करना नहीं है, यहां चिन्हो का अर्थ पहचान करना है। गुरु की पहचान कुछ सद्गुणों द्वारा ही हो सकती है वे गुण आगे बतलाये जाएंगे। हे पुरोहित! तू भी गुरु को पहचान तथा गुरुमुखी होकर सद्धर्म का उपदेश कर तथा मनमुखी धर्म का परित्याग कर, क्योंकि गुरुमुख से निकला हुआ वचन सदा धर्म की ओर ले जाने वाला ही होगा।
जो गुरु होयबा सहजे शीले नादे वेदे, तिहिं गुरु का आलिंकार पिछांणी।
सहज स्वभाव से ही शील व्रतधारी, शब्द विद्या का ज्ञाता, अनहद नाद ध्वनि का श्रोता व सम्पूर्ण वेदों का ज्ञाता तथा वक्ता यदि गुरु है तो उस गुरु के ये गुण अलंकार ही होंगे। उन अलंकारों से विभूषित गुरु को पहचान कर लेना। वास्तव में इन विशेषणों से युक्त ही सद्गुरु हो सकता है इन गुणों के बिना सतगुरु होने की कल्पना नहीं की जा सकती।
छव दरसण जिहिं के रूपण थापण, संसार बरतण निज कर थरप्या सो गुरु प्रत्यक्ष जांणी।
भारतीय आस्तिक ऋषियों द्वारा रचित न्याय, सांख्य, मीमांसा, वैशेषिक, योग, वेदान्त ये छः दर्शन जिस परमात्मा स्वरूप सद्गुरु के सम्बन्ध में अति विस्तार से वर्णन करते हैं। इन्हीं छः शास्त्रों मे जीव ईश्वर और जगत के बारे में अति सूक्ष्मता से वर्णन हुआ है। इस संसार रूपी घट बरतन को जिस सतगुरु रूपी परमात्मा ने अपने ही हाथों द्वारा बनाया है। उसी सतगुरु को हे पुरोहित! तू यहां पर प्रत्यक्ष देखकर पहचान।
जिहिं के खरतर गोठ निरोतर वाचा, रहिया र्रूद्र समाणी।
जिस परमात्म स्वरूप गुरु के बारे में विचार करते हुए अच्छी-अच्छी विद्वानों की संगोष्ठियां भी चुप हो जाती है। अपनी सामथ्र्यनुसार विचार कर लेने के पश्चात वेद की ध्वनि का अनुसरण करती हुई ‘नेति-नेति’ कहते हुए मौन हो जाती है, क्योंकि परमात्मा वाणी का विषय नहीं है, अनुभव गम्य विषय को वाणी प्रगट नहीं कर सकती, क्योंकि वह परमात्मा र्रुद्र रूप से सर्वत्र समाया हुआ है। जिस प्रकार से शरीर में रूधिर समान रूप से सर्वत्र है उसी प्रकार से वह चेतन-ज्योति भी सर्वत्र सामान्य रूप से समायी हुई है। गुरु आप संतोषी अवरां पोखी, तंत महारस बाणी। गुरु आप तो स्वयं संतोषी हैं अर्थात् कभी किसी से कुछ भी लेने की इच्छा नहीं रखते, क्योंकि वह तो सम्पूर्ण जीवों का पालन-पोषण करने वाले हैं तथा जीवों के पास कुछ देने को भी नहीं है, केवल अहंकार ही अपनी निजी संपत्ति है उसे हम समर्पण कर सकते हैं, यही सच्चा त्याग हो सकता है तथा सद्गुरु की वाणी तत्व को बतलाने वाली होती है और महारसीली मीठी वाणी से श्रोता को अमृत पान कराते हुए वे अजर-अमर कर देती है।
के के अलिया बासण होत हुतासण, तामैं खीर दूहीजूं।
इस विशाल संसार में कुछ लोग कच्चे मटके की तरह होते हैं, उसमें दूध, पानी नहीं रूक सकता अर्थात् जिनका अंतःकरण अभी मलीन है उनके उपर ज्ञान की बात असर नहीं करती किन्तु यही मटका जब अग्नि के संयोग से पक जाता है, तब उसमें दूध दूहा जा सकता है क्योंकि पकने के पश्चात् दूध ठहरने की योग्यता उस बर्तन में आ जाती है, ठीक उसी प्रकार से ही इस अमृतमय वाणी रूपी अग्नि का संयोग मूढ जनों के अंतःकरण से होगा तब वे भी मलिनता को दूर करके ज्ञान रूपी अमृत को धारण कर सकेंगे, इसलिए कहा है- ‘श्रोतव्य, मन्तव्य, निधिध् याषितव्य, दृष्टव्य’ श्रवण, मनन, निधिध्यासन करने से परमात्मा का दर्शन होता है।
रसूवन गोरस घीय न लीयूं, न तहां दूध न पाणी।
दूध में से घृत निकाल लेने पर पीछे छाछ ही रह जाती है, न तो उसको आप दूध ही कह सकते और न ही उसे जल कह सकते। ठीक उसी प्रकार से ही मानव के अन्दर ‘रसो वै सः’ वह रसमय आत्म ज्योति है किन्तु उसका साक्षात्कार नहीं होता है तो मानव छाछ की तरह ही रसहीन है। न तो आप उसे अपने मूल स्वरूप स्वभाव में स्थित कह सकते क्योंकि वह तो स्वरूप को भूल चुका है और न ही उसे आप रस विहीन ही कह सकते क्योंकि उस आनन्द मय रस में तो वह ओत-प्रोत ही हैं। किन्तु वह रस उसे अब तक प्राप्त नहीं हुआ है, तो हम उसे गोरस ही कह सकते हैं। गुरु ध्याईरे ज्ञानी तोड़त मोहा, अति खुरसाणी छीजत लोहा। इसलिए ज्ञानी गुरु का ध्यान कर, वह तेरे मोह का बन्धन तोड़ देगा जिस प्रकार से खुरसाणी पत्थर कठोर लोहे के लगे हुए जंग रूपी मैल को काट देता है उसे शुह् पवित्र कर देता है ठीक उसी प्रकार से ही तुम्हारे जंग रूपी मोह को सत्गुरु ही काट सकते हैं।
पाणी छल तेरी खाल पखाला, सतगुरु तोड़े मन का साला।
हे मानव तेरा पंच भौतिक शरीर चमड़े की बनी हुई पखाल की तरह ही है। क्योंकि उस चमड़े की पखाल में भी पानी भरा जाता है तथा ऊंट के पीठ पर लाद करके जब ले जाते हैं तो वह छलकती है। ठीक उसी प्रकार से भी तुम्हारा शरीर भी पानी से भरा हुआ है चलने पर यह भी छलकता है। जिस प्रकार से पखाल में छोटा छेद हो जाता है तो सम्पूर्ण जल निकल जाता है। उसी प्रकार से तुम्हारा शरीर भी फूट जायेगा तो पांचों तत्व स्वकीय स्वरूप में विलीन हो जायेंगे, यह देह मृत हो जायेगी। आत्मा अपने कर्मानुसार अन्य शरीर में गमन करेगी। मानसिक दुःख को सत्गुरु ही मिटा सकता है, तभी मानसिक दुःखों से सर्वदा निवृति हो जायेगी तो कायिक आदि दुःख तो स्वतः ही निवृत हो जाएंगे।
सतगुरु है तो सहज पिछाणी, विष्ण चरित बिन काचै करवै रह्यो न रहसी पांणी।
हे पुरोहित! तुम्हारे सामने बैठा हुआ बालक यदि सत्गुरु है तो सहज ही में पहचान कर लेना। यहां पर सत्गुरु होने का बहुत बड़ा प्रमाण प्रस्तुत कर रहे हैं कि देख विष्णु चरित के बिना कच्चे घड़े में न तो कभी जल ठहरा और न ही कभी भविष्य में ठहर सकेगा किन्तु विष्णु चरित से तो असंभव भी संभव हो जाता है। कच्चे घड़े में जल ठहर जाना यह विष्णु चरित ही है। इस प्रकार से पुरोहित के प्रति गुरु जांभोजी ने बाल्यावस्था में यह प्रथम शब्द, गुरु महिमा से युक्त उच्चारण किया।
0 टिप्पणियां:
एक टिप्पणी भेजें
टिप्पणी: केवल इस ब्लॉग का सदस्य टिप्पणी भेज सकता है.