श्री गुरु जम्भेश्वर शब्दवाणी (शब्द 06) || Shri Guru Jambheshwar Shabdvani (Shabd 06) || Bishnoism

श्री गुरु जम्भेश्वर शब्दवाणी (शब्द 06) || Shri Guru Jambheshwar Shabdvani (Shabd 06) || Bishnoism 

श्री गुरु जम्भेश्वर शब्दवाणी (शब्द 06) || Shri Guru Jambheshwar Shabdvani (Shabd 06) || Bishnoism
श्री गुरु जम्भेश्वर शब्दवाणी
शब्द: ०६


ओउम भवन भवन म्हें एका जोती, चुन चुन लिया रतना मोती।

भावार्थ- सम्पूर्ण चराचर सृष्टि के कण-कण में परम तत्व रूप परब्रह्या की सामान्य ज्योति सर्वत्र है अर्थात् प्रत्येक शरीर में स्थित जीवात्मा उसी एक परमात्मा का ही प्रतिबिम्ब है। जैसा बिम्ब रूप परमात्मा है वैसे ही प्रतिबिम्ब रूप जीव है, दोनों में कोई भेद नहीं है। यदि किसी को भेद मालूम पड़ता है तो वह केवल उपाधि के कारण ही हो सकता है। गुरु जाम्भोजी कहते हैं कि जीव सभी एक होने पर भी तथा परमात्मा का अंश होने पर भी, हमारे जैसे अवतारी पुरुष सभी जीवों का उद्धार नहीं करते क्योंकि सभी जीव अब तक ईश्वर प्राप्ति की योग्यता नहीं रखते इसलिए जो हीरे-मोती सदृश अमूल्य शुह् सात्विक सज्जनता को प्राप्त कर चुके हैं, उन्हें ही हम परम धाम में पहुंचाते हैं।


 म्हे खोजी थापण होजी नाही, खोज लहां धुर खोजूं।

हम खोजी हैं अर्थात् जिन जीवों के कर्मजाल समाप्त हो चुके हैं वे लोग अब परम तत्व के लिए बिल्कुल तैयार हैं, उन्हें केवल सहारे की जरूरत है। ऐसे जीवों की हम खोज करेंगे तथा चुन-चुन कर उन्हें परम सत्ता से साक्षात्कार करवाएंगे। हम होजी नहीं हैं, अर्थात् अज्ञानी या नासमझ नहीं हैं। एक-एक कार्य बड़ी शालीनता से किया जाएगा जो सदा के लिए सद्मार्ग स्थिर हो जाएगा। सृष्टि के प्रारम्भिक काल से लेकर अब तक जितने भी जीव बिछुड़ गए हैं उन्हें प्रह्लाद जी के कथनानुसार वापिस खोज करके सुख शांति प्रदान करूंगा। इसलिए मेरा यहां पर आगमन हुआ है।

अल्लाह अलेख अडाल अजोनी स्वयंभू, जिहिका किसा विनाणी।

उस परम तत्व की प्राप्ति जीव करते हैं, वह अल्लाह, माया रहित, शब्द लेखन शक्ति से अग्राह्र उत्पत्ति रहित, मूल स्वरूप, जो स्वयं अपने आप में ही स्थित है, उसका विनाश कैसे हो सकता है? इसलिए इस सिद्धांत से विपरीत जो जन्मा हो, लेखनीय हो, डाल रूप हो, जो उत्पत्तिशील हो उसका ही विनाश संभव है। इसलिए उस नित्य आनन्द स्वरूप परमात्मा को प्राप्त करके जीव भी नित्य आनन्द रूप ही हो जाता है।


 म्हे सरै न बैठा सीख न पूछी, निरत सुरत सब जाणी।

जब उधरण ने पूछा कि हे देव! यह शिक्षा आपने कौन सी पाठशाला में प्राप्त की, क्योंकि ऐसी विद्या तो हम भी सीखना चाहते हैं। तब जम्भेश्वरजी ने कहा कि ‘मैंने यह विद्या किसी पाठशाला में बैठकर नहीं सीखी।’
उधरण-तो फिर कैसे जान गए?
हे उधरण! मैंने इसी प्रकृति की पाठशाला में बैठकर सुरति-वृति को निरति यानि एकाग्र करके सभी कुछ जान लिया। पाठशाला में बैठकर तो सभी कुछ नहीं जाना जा सकता किन्तु उस सत्ता परमेश्वर के साथ वृति को मिला लेने से सभी कुछ जाना जा सकता है, क्योंकि वह परम तत्व व्यापक होने से वृति एकाग्र कर्ता जीव भी व्यापकत्व को प्राप्त हो जाता है और सभी कुछ जान लेता है। इसलिए आप भी मन-वृति को एकाग्र कीजिए और सभी कुछ जानिए।

उत्पत्ति हिन्दू जरणा जोगी, किरिया ब्राह्रण, दिलदरवेसां, उनमुन मुल्ला, अकल मिसलमानी।

उत्पत्ति से तो सभी हिन्दू हैं, क्योंकि जितने भी धर्म और सम्प्रदाय चले हैं, उनका तो कोई न कोई समय निश्चित है। किन्तु हिन्दू आदि अनादि हैं, कोई भी संवत् निश्चित नहीं है तथा मानवता जिसे हम कहते हैं,वह पूर्णतया हिन्दू में ही सार्थक होती है, इसलिए उत्पन्न होता हुआ बालक हिन्दू ही होता है, बाद में उसको संस्कारों द्वारा मुसलमान, इसाई आदि बनाया जाता है। जिसके अन्दर जरणा अर्थात् सहनशीलता है वही योगी है। जिस प्राणी के अन्दर क्रिया, आचार-विचार, रहन-सहन, पवित्र तथा शुह् हैं वही ब्राह्रण है। जिस मानव का अंतःकरण शुद्ध पवित्र, विशाल, राग द्वेष से रहित है वही दरवेश है। जिस मनुष्य ने मानसिक वृतियों को संसार से हटाकर आत्मस्थ कर लिया है वही मुल्ला है तथा जो इस संसार में बुद्धिद्वारा सोच-विचार के कार्य करता है वही मुसलमान हो सकता है क्योंकि मुसलमान पंथ संस्थापक ने अकलहीनों को अकल दी थी जिससे यह पंथ स्थापित हुआ था। कोई भी जाति विशेष इन विशिष्ट कर्मों द्वारा ही निर्मित होती है। कर्महीन होकर केवल जन्मना जाति से कुछ भी लाभ नहीं है। यह तो मात्र पाखण्ड ही होगा।


साभार-जंभसागरद्वारा: स्वामी कृष्णानन्द जी प्रकाशक: जाम्भाणी साहित्य अकादमी

साभार-जंभसागर

द्वारा: स्वामी कृष्णानन्द जी 

प्रकाशक: जाम्भाणी साहित्य अकादमी 






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