श्री गुरु जम्भेश्वर शब्दवाणी (शब्द 06) || Shri Guru Jambheshwar Shabdvani (Shabd 06) || Bishnoism

श्री गुरु जम्भेश्वर शब्दवाणी (शब्द 06) || Shri Guru Jambheshwar Shabdvani (Shabd 06) || Bishnoism 

श्री गुरु जम्भेश्वर शब्दवाणी (शब्द 06) || Shri Guru Jambheshwar Shabdvani (Shabd 06) || Bishnoism
श्री गुरु जम्भेश्वर शब्दवाणी
शब्द: ०६


ओउम भवन भवन म्हें एका जोती, चुन चुन लिया रतना मोती।

भावार्थ- सम्पूर्ण चराचर सृष्टि के कण-कण में परम तत्व रूप परब्रह्या की सामान्य ज्योति सर्वत्र है अर्थात् प्रत्येक शरीर में स्थित जीवात्मा उसी एक परमात्मा का ही प्रतिबिम्ब है। जैसा बिम्ब रूप परमात्मा है वैसे ही प्रतिबिम्ब रूप जीव है, दोनों में कोई भेद नहीं है। यदि किसी को भेद मालूम पड़ता है तो वह केवल उपाधि के कारण ही हो सकता है। गुरु जाम्भोजी कहते हैं कि जीव सभी एक होने पर भी तथा परमात्मा का अंश होने पर भी, हमारे जैसे अवतारी पुरुष सभी जीवों का उद्धार नहीं करते क्योंकि सभी जीव अब तक ईश्वर प्राप्ति की योग्यता नहीं रखते इसलिए जो हीरे-मोती सदृश अमूल्य शुह् सात्विक सज्जनता को प्राप्त कर चुके हैं, उन्हें ही हम परम धाम में पहुंचाते हैं।


 म्हे खोजी थापण होजी नाही, खोज लहां धुर खोजूं।

हम खोजी हैं अर्थात् जिन जीवों के कर्मजाल समाप्त हो चुके हैं वे लोग अब परम तत्व के लिए बिल्कुल तैयार हैं, उन्हें केवल सहारे की जरूरत है। ऐसे जीवों की हम खोज करेंगे तथा चुन-चुन कर उन्हें परम सत्ता से साक्षात्कार करवाएंगे। हम होजी नहीं हैं, अर्थात् अज्ञानी या नासमझ नहीं हैं। एक-एक कार्य बड़ी शालीनता से किया जाएगा जो सदा के लिए सद्मार्ग स्थिर हो जाएगा। सृष्टि के प्रारम्भिक काल से लेकर अब तक जितने भी जीव बिछुड़ गए हैं उन्हें प्रह्लाद जी के कथनानुसार वापिस खोज करके सुख शांति प्रदान करूंगा। इसलिए मेरा यहां पर आगमन हुआ है।

अल्लाह अलेख अडाल अजोनी स्वयंभू, जिहिका किसा विनाणी।

उस परम तत्व की प्राप्ति जीव करते हैं, वह अल्लाह, माया रहित, शब्द लेखन शक्ति से अग्राह्र उत्पत्ति रहित, मूल स्वरूप, जो स्वयं अपने आप में ही स्थित है, उसका विनाश कैसे हो सकता है? इसलिए इस सिद्धांत से विपरीत जो जन्मा हो, लेखनीय हो, डाल रूप हो, जो उत्पत्तिशील हो उसका ही विनाश संभव है। इसलिए उस नित्य आनन्द स्वरूप परमात्मा को प्राप्त करके जीव भी नित्य आनन्द रूप ही हो जाता है।


 म्हे सरै न बैठा सीख न पूछी, निरत सुरत सब जाणी।

जब उधरण ने पूछा कि हे देव! यह शिक्षा आपने कौन सी पाठशाला में प्राप्त की, क्योंकि ऐसी विद्या तो हम भी सीखना चाहते हैं। तब जम्भेश्वरजी ने कहा कि ‘मैंने यह विद्या किसी पाठशाला में बैठकर नहीं सीखी।’
उधरण-तो फिर कैसे जान गए?
हे उधरण! मैंने इसी प्रकृति की पाठशाला में बैठकर सुरति-वृति को निरति यानि एकाग्र करके सभी कुछ जान लिया। पाठशाला में बैठकर तो सभी कुछ नहीं जाना जा सकता किन्तु उस सत्ता परमेश्वर के साथ वृति को मिला लेने से सभी कुछ जाना जा सकता है, क्योंकि वह परम तत्व व्यापक होने से वृति एकाग्र कर्ता जीव भी व्यापकत्व को प्राप्त हो जाता है और सभी कुछ जान लेता है। इसलिए आप भी मन-वृति को एकाग्र कीजिए और सभी कुछ जानिए।

उत्पत्ति हिन्दू जरणा जोगी, किरिया ब्राह्रण, दिलदरवेसां, उनमुन मुल्ला, अकल मिसलमानी।

उत्पत्ति से तो सभी हिन्दू हैं, क्योंकि जितने भी धर्म और सम्प्रदाय चले हैं, उनका तो कोई न कोई समय निश्चित है। किन्तु हिन्दू आदि अनादि हैं, कोई भी संवत् निश्चित नहीं है तथा मानवता जिसे हम कहते हैं,वह पूर्णतया हिन्दू में ही सार्थक होती है, इसलिए उत्पन्न होता हुआ बालक हिन्दू ही होता है, बाद में उसको संस्कारों द्वारा मुसलमान, इसाई आदि बनाया जाता है। जिसके अन्दर जरणा अर्थात् सहनशीलता है वही योगी है। जिस प्राणी के अन्दर क्रिया, आचार-विचार, रहन-सहन, पवित्र तथा शुह् हैं वही ब्राह्रण है। जिस मानव का अंतःकरण शुद्ध पवित्र, विशाल, राग द्वेष से रहित है वही दरवेश है। जिस मनुष्य ने मानसिक वृतियों को संसार से हटाकर आत्मस्थ कर लिया है वही मुल्ला है तथा जो इस संसार में बुद्धिद्वारा सोच-विचार के कार्य करता है वही मुसलमान हो सकता है क्योंकि मुसलमान पंथ संस्थापक ने अकलहीनों को अकल दी थी जिससे यह पंथ स्थापित हुआ था। कोई भी जाति विशेष इन विशिष्ट कर्मों द्वारा ही निर्मित होती है। कर्महीन होकर केवल जन्मना जाति से कुछ भी लाभ नहीं है। यह तो मात्र पाखण्ड ही होगा।


साभार-जंभसागरद्वारा: स्वामी कृष्णानन्द जी प्रकाशक: जाम्भाणी साहित्य अकादमी

साभार-जंभसागर

द्वारा: स्वामी कृष्णानन्द जी 

प्रकाशक: जाम्भाणी साहित्य अकादमी 






श्री गुरु जम्भेश्वर शबदवाणी (शब्द 05) || Shri Guru Jambheshwar Shabdvani (Shabd 05) || Bishnoism



श्री गुरु जम्भेश्वर शब्दवाणी (शब्द ५) || Bishnoism
शब्द: ५

श्री गुरु जम्भेश्वर शबदवाणी (शब्द 05) || Shri Guru Jambheshwar Shabdvani (Shabd 05) || Bishnoism 

 ओउम अइयालो अपरंपर बाणी,महे जपां न जाया जीयूं।|

हे संसार के लोगों ! मेरी बाणी अपरंपार है अर्थात् तुम लोग जिनकी परंपरा से उपासना करते आये हो और अब भी कर रहे हो, ऐसी परंपरा वाली उपासना मैं नहीं करता। आप लोगों ने जिस परम तत्व की कभी कल्पना भी नहीं की होगी, जो लोगों की सामान्य वाणी से परे है। केवल योगी लोगों द्वारा अनुभव गम्य है, उसी परम देव की मैं मन वचन कर्म से उपासना तथा जप करता हूं और आप लोग भी उसी की उपासना करो। हमारे जैसे पुरूष कभी भी जन्में हुए जीवों की उपासना जप नहीं करते यदि आप लोग करते हैं तो छोड़ दीजिये। जन्मा जीव तो स्वयं असमर्थ है, कमजोर व्यक्ति दूसरे की क्या सहायता कर सकता है।

 नव अवतार नमो नारायण,तेपण रूप हमारा थीयूं।|

परम सत्तावान भगवान विष्णु के ही नवों अवतार हुए हैं, ये नव अवतार-मच्छ, कच्छ, वाराह, नृसिंह, बावन, परशुराम, राम-लक्ष्मण, कृष्ण तथा बुद्ध इत्यादि। ये नवों अवतार ही नमन करने योग्य हैं, इनसे अतिरिक्त अन्य जन्मा जीव उपास्य नहीं है तथा ये नवों अवतार श्री जाम्भोजी कहते हैं कि मेरे ही स्वरूप है। देश काल, शरीर से भिन्न होते हुए भी तत्व रूप से तो मैं और नवों अवतार एक ही है।

 जपी तपी तक पीर ऋषेश्वर, कांय जपीजै तेपण जाया जीयूं।|

अब आगे जन्मे हुए जीवों को बता रहे हैं, जिनका जप लोग किया करते हैं, उनमे यती, तपस्वी, तकिये पर रहने वाले फकीर, ऋषि,मण्डलेश्वर, इत्यादि जन्मे जीव हैं। हे लोगों ! इनका जप क्यों करते हो ?

खेचर भूचर खेत्र पाला परगट गुप्ता, कांय जपीजै तेपण जाया जीयूं||


 आकाश में विचरण करने वाले, धरती पर रहने वाले, खेत्रपाल, भोमियां इत्यादि कुछ तो प्रगट तथा कुछ गुप्त इन्हें आप क्यों जपते हैं ये तो जन्मे हुए जीव हैं।

वासग शेष गुणिदां फुणिदां, कांय जपीजै तेपण जाया जीयूं|| 

वासुकि नाग, शेषनाग, मणिधारी, गुणवान तथा फणधारी, नागराज ही क्यों न हों ये सभी जन्में हुए जीव है इसलिये जप करने के योग्य नहीं है फिर इनके नीचे पड़ कर धोक क्यों लगाते हो ?


चैषट जोगनी बावन भैरूं, कांय जपीजै तेपण जाया जीयूं||

 चैंसठ प्रकार की योगनियां तथा बावन प्रकार के बीर - भैरव जो देहातों में अब भी पूजे जाते हैं ये सभी जन्म-मरण धर्मा सामान्य जीव है इनकी आराधना सदा ही वर्जनीय है, आप लोग क्यों भोपों-पुजारियों के चक्कर में पड़ कर धन, बल, समय, व्यर्थ में ही बरबाद करते हो।

जपां तो एक निरालंभ शिम्भूं, जिहिं के माई न पीयूं||

एक निराकार निरालंभ, निरंजन, स्वयंभूं का ही हम तो जप करते हैं जिनके न तो कोई माता है और न ही कोई पिता ही है तथा जो सर्वाधार सर्वशक्तिमान है और वह सभी के माता-पिता भाई-बन्धु सभी कुछ है।

 न तन रक्तूं न तन धातूं,न तन ताव न सीयू||

एक मात्र समादरणीय वह तत्व साकार रूप धारण करके सर्वसृष्टि की रचना करता है। मृत्यु से स्वयं तो रहित है किन्तु सभी जीवों का एक मूल स्थान है। वहीं से जीवों का उद्गम होता है, अन्त में वहीं जाकर जीव विलीन हो जाते हैं। ऐसे परम तत्व मूल को खोजना चाहिये, प्राप्त करना चाहिये।

 सर्व सिरजत मरत विवरजत,तास न मूलज लेणा कीयों।| 


एकमात्र समादरणीय वह तत्व साकार रूप धारण करके सर्वसृष्टि की रचना करता है। मृत्यु से स्वयं तो रहित है किन्तु सभी जीवों का एक मूल स्थान है। वहीं से जीवों का उद्गम होता है, अन्त में वहीं जाकर जीव विलीन हो जाते हैं। ऐसे परम तत्व मूल को खोजना चाहिए, प्राप्त करना चाहिए।

 अइयालों अपरंपर बाणी, महे जपां न जाया जीयूं।|


इसीलिये हे लोगो! मेरा मार्गकुछ विचित्र है किन्तु सत्य सनातन है, संसार की लीक से हटकर होने से आश्चर्य नहीं करना। अतः मैं जन्में जीवों का जप नहीं करता। जो स्वयं फंसे हैं वे दूसरों को कैसे मुक्ति दिला सकते हैं।



साभार-जंभसागर

द्वारा: स्वामी कृष्णानन्द जी 


प्रकाशक: जाम्भाणी साहित्य अकादमी 


श्री गुरु जम्भेश्वर शबदवाणी (शब्द 04) || Shri Guru Jambheshwar Shabdvani (Shabd 04) || Bishnoism


श्री गुरु जम्भेश्वर शबदवाणी (शब्द 04) || Shri Guru Jambheshwar Shabdvani (Shabd 04) || Bishnoism 

श्री गुरु जम्भेश्वर शब्दवाणी (शब्द 04) || Shri Guru Jambheshwar Shabdvani (Shabd 04) || Bishnoism
श्री गुरु जम्भेश्वर शब्दवाणी शब्द - ४

ओ3म् जद पवन न होता पाणी न होता, न होता धर गैणारूं।

महाप्रलयावस्था में जब सृष्टि के कारण रूप आकाशादि तत्व ही नहीं रहते, वे अपने कारण में विलीन हो जाते हैं तथा पुनः सृष्टि प्रारंभ अवस्था में अपने कारण से कार्य रूप से परिणित हो जाते हैं, यही क्रम चलता रहता है। श्री देवजी कहते हैं कि जब सृष्टि की उत्पत्ति नहीं हुई थी उस समय सृष्टि के ये कारण रूप पवन, जल, पृथ्वी, आकाश और तेज नहीं थे। जैसा इस समय आप देखते हैं वैसे नहीं थे, अपने कारण रूप में ही थे।

चन्द न होता सूर न होता, न होता गिंगंदर तारूं।


उस समय सूर्य, चन्द्रमा नहीं थे तथा ये आकाश मण्डल के तारे भी नहीं थे अर्थात् अग्नि तत्व का फैलाव नहीं हुआ था। यानि अग्नि स्वयं कार्य रूप में परिणित नहीं हो सकी थी।

गग्न गोरू माया जाल न होता, न होता हेत पियारूं।
तथा अन्य पृथ्वी तत्व का पसारा भी तब तक नहीं हो सका था जो प्रधानतः गाय-बैल के रूप में प्रसिह् हैं तथा तब तक ईश्वरीय माया ने अपनी गति विधि प्रारम्भ नहीं की थी। सभी जीव-आत्मा अपने शुह् स्वरूप में ही स्थित थे। माया ने अपना जाल अब तक नहीं फैलाया था। जिससे प्रेम, मोह, द्वेष आदि भी नहीं थे किंतु सभी कुछ सामान्य ही था।
माय न बाप न बहण न भाई, साख न सैण न होता पख परवारूं।
तब तक माता-पिता, बहन-भाई सगा-सम्बन्धी मित्र आदि परिवार का पक्ष नहीं था। जीव स्वयं अकेला ही था। मोह माया जनित दुख से रहित चैतन्य परमात्मा हिरण्यगर्भ के रूप में स्थित था। लख चैरासी जीया जूणी न होती, न होती बणी अठारा भारूं। चैरासी लाख योनियां भी तब तक उत्पन्न नहीं हुई थी अर्थात् मनुष्य आदि जीव भी सुप्तावस्था में ही थे। अठारह भार वनस्पति भी उस समय नहीं थी। ;शास्त्रों में वर्णित है कि कुल वनस्पति अठारह भार ही है यह भार एक प्रकार का तोल ही है।

सप्त पाताल फूंणींद न होता, न होता सागर खारूं।


सातों पाताल तथा पाताल लोक का स्वामी पृथ्वी धारक शेष नाग भी नहीं था। यहां पर केवल पाताल लोकों का ही निषेध किया है, इसका अर्थ है कि अन्य उपरि स्वर्गादिक लोक तो थे तथा खारे जल से परिपूर्ण समुन्द्र भी उस समय नहीं था।

अजिया सजियां जीया जूणी न होती, न होती कुड़ी भरतारूं। जड़, चेतनमय दोनों प्रकार की सृष्टि उस समय नहीं थी तथा उन दोनों प्रकार की सृष्टि के रचयिता माया पति सगुण-साकार ब्रह्म, विष्णु, महेश तीनों देव भी तब तक नहीं थे। आकाशादि सृष्टि के उत्पत्ति के पश्चात् ही सर्वप्रथम विष्णु की उत्पत्ति होती है, विष्णु से ही ब्रह्म की उत्पत्ति होती है, ब्रह्म ही अपनी झूठी मिथ्या माया से जगत की रचना करते हैं ऐसी प्रसिह् िहै इसलिए उस समय कूड़ी, झूठी माया तथा माया पति दोनों ही नहीं थे, तब जड़ चेतन की उत्पत्ति भी नहीं थी।

अर्थ न गर्थ न गर्व न होता, न होता तेजी तुरंग तुखारूं।

उस समय ये सांसारिक चकाचैंध पैदा करने वाले धन दौलत तथा उससे उत्पन्न होने वाला अभिमान नहीं था। चित्र-विचित्र रंग-रंगीले तेज चलने वाले घोड़े, भी उस समय नहीं थे।

हाट पटण बाजार न होता, न होता राज दवारूं।

श्रेष्ठ दुकानें, व्यापारिक प्रतिष्ठान, बाजार आदि दिग्भ्रमित करने वाले राज-दरबार भी उस समय नहीं थे। जो इस समय यह उपस्थित चकाचौंध तथा राज्य प्राप्ति की अभिलाषा जनित क्लेश है उस समय नहीं था।

चाव न चहन न कोह का बाण न होता, तद होता एक निरंजन शिम्भू।

इस समय की होने वाली चाहना यानि एक-दूसरे के प्रति लगाव या प्रेम भाव, खुशी से होने वाली चहल-पहल, उत्सव तथा क्रोध रूपी बाण भी उस समय नहीं थे। प्रेम तथा क्रोध दोनों ही अपनी-अपनी जगह पर स्थित होकर मानव को घायल कर देते हैं, यह स्थिति उस समय नहीं थी तो क्या? कुछ भी नहीं था। उस समय तो माया रहित एकमात्र स्वयंभू ही था।

कै होता धंधूकारूं बात कदो की पूछै लोई, जुग छतीस विचारूं।

या फिर धंधूकार ही था। पंच महाभूतों की जब प्रलयावस्था होती है तब वे परमाणु रूप में परिवर्तित हो जाते हैं, उन परमाणुओं से धन्धूकार जैसा वातावरण हो जाता है। हे सांसारिक लोगो! आप कब की बात पूछते जो ? यदि आप कहें तो एक या दो युग नहीं, छतीस युगों की बात बता सकता हूं। तांह परैरे अवर छतीसूं, पहला अन्त न पारूं। तथा छतीस युगों से भी आगे की बात बता सकता हूं तथा उन छतीस से भी पूर्व की बात बता सकता हूं।

 ह परैरे अवर छतीसूं, पहला अन्त न पारूं। 

तथा छतीस युगों से भी आगे की बात बता सकता हूं तथा उन छतीस से भी पूर्व की बात बता सकता हूं। उससे पूर्व का तो कोई अन्त पार भी नहीं है।

 म्हे तदपण होता अब पण आछै, बल बल होयसा कह कद कद का करूं विचारूं।

जब इस सृष्टि का विस्तार कुछ भी नहीं था, इसलिए मैं बता भी सकता हूं कि उस समय क्या स्थिति थी। इस समय मैं विद्यमान हूं और आगे भी रहूंगा। हे उधरण! कहो कब कब का विचार कहूं। अर्थात् आप लोग मेरी आयु किस किस समय की पूछते हैं? मैं अपनी आयु कितने वर्षों की बतलाऊ।

श्री गुरु जम्भेश्वर शब्दवाणी ( शब्द ३) || Shri guru jambheshwar shabdvani (Shabd 3) || Bishnoism

श्री गुरु जम्भेश्वर शब्दवाणी ( शब्द ३) || Shri guru jambheshwar shabdvani (Shabd 3) || Bishnoism 


ओ3म् मोरें अंग न अलसी तेल न मलियों, ना परमल पिसायों।

 हे वीदा! मेरे इस शरीर पर किसी भी प्रकार का अलसी आदि का सुगन्धित तेल या अन्य पदार्थ का लेपन नहीं किया गया है क्योंकि मैं यहां सम्भराथल पर बैठा हुआ हूं। यहां ये सुगन्धित द्रव्य उपलब्ध भी नहीं है और न ही इनकी मुझे आवश्यकता ही है।

जीमत पीवत भोगत विलसत दीसां नाही, म्हापण को आधारूं। 

पृथ्वी का गुण गन्ध है जो भी पार्थिव पदार्थों का शरीर रक्षा के लिये सेवन करेगा, उस शरीर में दुर्गन्ध अवश्य ही आएगी किन्तु जम्भेश्वर जी कहते हैं कि हे वीदा! मुझे इस शरीर रक्षार्थ इन पृथ्वी आदि पांच द्रव्यों की आवश्यकता नहीं पड़ती क्योंकि परमात्मा तो सभी का आधार है, परमात्मा का आधार कोई नहीं होता है। वह परमात्मा पंच भौतिक शरीर धारण करता है। तो भी अन्य सांसारिक जनों की भांति खाना-पीना भोग विलास आदि नहीं करता, वे अत्यल्प आवश्यकतानुसार आहार यदि करते हैं तो वह आहार दुर्गन्ध आदि विकार उत्पन्न नहीं कर सकता। इसलिए हमारा शरीर सुगन्ध वाला है न कि दुर्गन्ध वाला।

अड़सठ तीर्थ हिरदै भीतर, बाहर लोका चारूं। 

अड़सठ स्थानों में प्रसिद  तीर्थ तो बाह्या न होकर ह्रदय के भीतर ही हैं अर्थात् जिस प्रकार से अड़सठ तीर्थ ह्रदय में प्रवाहित होते हैं, योगी लोग उनमें स्नान करते हैं उसी प्रकार से चेतन सत्ता भी ह्रदय देश में प्रत्यक्ष रूपेण रहती है, उसमें ही जो रमण करेगा उसके शरीर में कैसी दुर्गन्ध, वह ज्योतिर्मय ईश्वर तो सदा सर्वदा सुगन्धमय ही है तथा जिनकी वृत्ति बाह्या शरीर में ही विचरण करती है। परमात्मा की झलक से वंचित हो चुकी है तथा बाह्या पदार्थों का आश्रय ग्रहण किया है ऐसे जनों का शरीर दुर्गन्धमय ही होगा। इसलिए हे वीदा! मैं तो अड़सठ तीर्थों में स्नान नित्य प्रति करता ही हूं, यहां पर सांसारिक जनों की भांति व्यवहार तो मेरा लोकाचार ही है। नान्ही मोटी जीया जूणी, एति सांस फूंरंतै सारूं। सृष्टि के छोटे तथा बड़े, जीवों की उत्पत्ति , स्थिति तथा प्रलय के बीच का समय एक श्वांस का ही होता है। जितना समय श्वांस के आने तथा जानें में लगता है, उतनें ही समय में परमात्मा सम्पूर्ण जीवों की सृजना कर देते हैं वह सृजन कर्ता  मैं ही हूं।

 वासंदर क्यूं एक भणिजै, जिहिं के पवन पिराणों|

 यहां पर उपर्युक्त वचनों को श्रवण करने पर वीदा के अन्दर कुछ क्रोध  उत्पन्न हो गया, इसलिए जम्भेश्वर जी ने कहा- हे वीदा! तूं एकमात्र क्रोध रूपी अग्नि को ही क्यों बढ़ावा देता है। यह क्रोध तुम्हारे लिए विनाशकारी है। अग्नि और क्रोध में सादृश्यता बताते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार से अग्नि की प्राण वायु होती है उसी प्रकार से क्रोध  का प्राण भी वायु रूप झट से निकला हुआ कठोर वचन होता है।

आला सूका मेल्है नाही, जिहिं दिश करै मुहाणों। 

जब अग्नि प्रज्ज्वलित हो जाती है तब न तो हरी वनस्पति को छोड़ती है और न ही शुष्क वनस्पति को छोड़ता और न ही निर्दोषी का ख्याल करता, विवेक शून्य होकर दोनों पर बराबर ही अपराध कर देता है। अग्नि तथा क्रोध दोनों ही जिस तरफ भी बढ़ेंगे उस तरफ तबाही मचा देंगे।

पापे गुन्है वीहे नाही, रीस करै रीसाणों।

 अग्नि तथा क्रोधदोनों ही जिस तरफ भी बढ़ेंगे अर्थात् जिस व्यक्ति को भी अपना लक्ष्य बनाएंगे उस समय न तो उसे पापी का ज्ञान रहेगा और न ही गुणी का ज्ञान रहेगा। क्रोध  में व्यक्ति जब क्रोधित हो जाता है तो निर्णय लेने में असमर्थ हो जाता है, उसका कर्तव्य - अकर्तव्य  का विवेक भ्रष्ट हो जाता है।

बहूली दौरे लावण हारू, भावै जाण मैं जाणूं।

 यह क्रोध ही सभी दुर्गुणों की जड़ है। एक क्रोध से ही सभी दुर्गुण उत्पन्न हो जाते हैं और ये दुर्गुण बार-बार नरक में ले जाने वाले होते हैं। इस जीवन में दुःखों को भोगते हैं तथा परलोक भी दुःखमय बन जाता है। अग्नि हाथ में चाहे जान कर ले या अनजान में ले वह तो जलाएगी ही। इस प्रकार से क्रोध भी चाहे जानकर करें या अनजान
में करें वह तो दुःखित करेगा ही।

 न तूं सुरनर न तूं शंकर, न तू राव न राणों।

 हे वीदा! न तो तूं देवता है और न ही तूं मानव है, तथा न ही तूं शंकर है, न तूं राजा है, और न ही तूं राणा है।
काचै पिण्ड अकाज चलावै, महा अधूरत दाणों।
तेरा यह शरीर तो कच्चा है इस पर तूं इतना अभिमान क्यों करता है यह कभी भी टूट सकता है तथा इस स्थित काया से तूं पाप करता है यह तो महाधूर्तों का, दानवों का कार्य है।

मौरे छुरी न धारू लोह न सारूं, न हथियारूं।

जब वीदा कुछ नम्रता को प्राप्त हुआ तब कहने लगा कि आप इस भयंकर वन में रहते हैं आपके पास कोई हथियार तो अवश्य ही होगा, यदि नहीं होगा तो आपको जरूर रखना चाहिए। यह शंका उत्पन्न होने पर जम्भेश्वर जी ने कहा- मेरे पास लोहे की बनी हुई धारीदार-पैनी छुरी या
अन्य हथियार नहीं है। तब वीदे की शंका ने आगे पैर पसारा कि आखिर आपके शत्रु क्यों नहीं? आगे जम्भेश्वर जी बतलाया-

 सूरज को रिप बिहंडा नाही, तातैं कहा उठावत भारूं।

 हे वीदा! सूर्य का शत्रु जुगनूं- आगिया नहीं हो सकता क्योंकि शत्रुता तथा मित्रता ये दोनों बराबर वालों में ही होती है। इसलिए मैं तो सूर्य के समान हूं तथा अन्य संसारिक शत्रु लोग तो जुगनूं के समान ही हैं। सूर्य जब तक उदय नहीं होता तब तक ही जुगनूं चम चम करता है। सूर्य उदय होने पर तो लुप्त हो जाता है इसलिए मैं यह शस्त्र रूपी लोहे का भार क्यों उठाऊं। क्योंकि मेरा शत्रु कुछ भी नहीं कर सकता तो शरीर की रक्षा के लिए मैं भार क्यों उठाऊं।

 जिहिं हाकणड़ी बलद जूं हाकै, न लोहै की आरूं।

 मेरे पास तो जो बैल हांकने की साधारण लकड़ी होती है उसके अग्र भाग में लोहे की छोटी सी कील लगी रहती है उसके बराबर भी लोहे का शस्त्र नहीं है।

साभार-जंभसागर
व्याख्या: स्वामी कृष्णानन्द आचार्य
प्रकाशक: जाम्भाणी साहित्य अकादमी 

श्री गुरु जम्भेश्वर शबदवाणी (शब्द 02) || Shri Guru Jambheshwar Shabadvani (Shabad 02) || Bishnoism

श्री गुरु जम्भेश्वर शबदवाणी (शब्द 02) || Shri Guru Jambheshwar Shabadvani (Shabad 02) || Bishnoism 



ओउम मोरे छायान माया लोह न मांसु । रक्तुं न धातुं । मोरे माई न बापुं । रोही न रांपु । को न कलापुं । दुख; न सरापुं । लोंई अलोई । तयुंह त्रुलाइ । ऐसा न कोई । जपां भी सोई।
जिहीं जपे आवागवण न होई । मोरी आद न जाणत । महियल धुं वा बखाणत । उरखडा- कले तॄसुलुं । आद अनाद तो हम रचीलो, हमे सिरजीलो सैकोण । म्हे जोगी कै भोगी कै अल्प अहारी । ज्ञानी कै ध्यानी, कै निज कर्म धारी । सौषी कै पोषी । कैजल बिंबधारी, दया धर्म थापले निज बाला ब्रह्मचारी ।। २।।

भावार्थ: प्राय सभी सांसारिक जीव माया की छाया में ही रहते हुए अपना जीवन व्यतीत करते हैं| इसलिए उनको सत्य-असत्य का विवेक नहीं हो पाता|किन्तु जम्भेश्वर जी कहते हैं -हे उधरण !मेरे इस शुद्ध रूप में ना तो माया हैं  और न ही माया की अज्ञान रूपी छाया हैं,अर्थात अन्य लोगों की तरह मैं मायाच्छादित नहीं हूं|इस शुद्ध स्वरूप चैतन्य आत्मा में पंच भौतिक शरीर की भांति लोहा, मांस, रक्त और धातु नहीं हैं| इस निर्गुण निराकार सच्चिदानंद आत्मा के न तो कोई माता हैं और न ही पिता हैं | यहाँ पर अयात्मा ब्रह्म के अनुसार आत्मा-परमात्मा दोनों का अभेद प्रतिपादन किया गया हैं |
मैं स्वयं अपने आप में ही स्थित हूं अर्थात अपने जीवन यापन के लिए किसी अन्य के सहारे की आवश्यकता मुझे नहीं हैं |वन्य जीवन की भांति अव्यवस्थाओं से भरा हुआ मेरा जीवन नहीं हैं | दुर्गुणों से दुर होकर शुद्ध  सात्विक हो चुका हूं इसलिए किसी भी प्रकार का क्रोध ,मोह आदि मेरे यहाँ नहीं हैं तथा जब क्रोध ही नहीं हैं तो दुख भी नहीं हैं और दुख न होने से मैं किसी को शाप भी नहीं दे सकता| किन्तु आशीर्वाद दे सकता हूं|
उधरण ने पूछा हे देव! जब आप स्वयं ही ब्रह्म स्वरूप हैं तो जप तप किसका करते हैं ? गुरु जम्भेश्वर जी ने कहा- यह बात तुम्हारी ठीक हैं किन्तु जड़, चेतन मय तीनों लोकों में कहीं भी उस चेतन शक्ति से खाली नहीं हैं ,वह सर्वत्र व्याप्त हैं ,उसी व्यापक स्वरूप परमात्मा का भजन हो रहा हैं |
  परमेश्वर का भजन करने से जन्म-मृत्यु का चक्र छूट जाता हैं क्योंकि जैसी उपासना करता हैं ,वह उपासक भी वैसा ही हो जाता हैं| अमरत्व की साधना करने वाला अमर पद प्राप्त कर लेता हैं
हे उधरण !मेरे शुद्ध स्वरूप परमात्मा की आदि कोई ऩहीं जानता क्योंकि जब वह आदि स्वरूप में स्थित था तब तो सृष्टि की उत्पत्ति भी नहीं हुई थी, तब इस सृष्टि का मानव परमात्मा के प्रथम स्वरूप को कैसे जान सकेगा ?किन्तु अनुमान के द्वारा ज्ञान प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाता हैं ,जैसे पर्वत पर धुआं देख कर अग्नि का अनुमान लगाते हैं | उसी प्रकार कार्य रूप जगत को देख कर कारण स्वरूप परमात्मा का अनुमान मात्र ही होता हैं | उसे प्रत्यक्ष कदापि नहीं कर सकते हैं | 
हे उधरण !दैहिक, दैविक और भौतिक  ये तीन प्रकार के ताप जो सदा सुल की तरह ऊपर ऊठे हुए चुभते रहते हैं ,इनको ढकने का प्रयत्न कर ,यहीं इस समय कर्तव्य हैं | व्यर्थ के वाद विवाद में पड़ कर समय बर्बाद मत कर|
यह वर्तमान था, इससे पूर्व सृष्टि की रचना तो परमात्मा स्वरूप मैंने ही की हैं ,तब प्रश्न उठता हैं कि परमात्मा की रचना करने वाला भी तो कोई होगा?  यदि यहाँ पर कार्य कारण भाव की कल्पना करने हैं तो अनावस्था दोष आता हैं इसलिए जम्भेश्वर जी कहते हैं कि हमारी सृजना करने वाला कोई भी नहीं हैं ,यदि होता तो उसका भी कर्ता कोई और होगा तथा उसका भी कोई और होगा, यही अनावस्था दोष हैं |
हमारे जैसे अवतारी पुरुष योगी हैं या भोगी अथवा थोडा आहार करने वाले हैं ,या हम ज्ञानी हैं अथवा ध्यान करने वाले ध्यानी या स्वकीय कर्तव्य कर्म का पालन करने वाले हैं|
हम आप किसी का शोषण करने वाले हैं या जल में प्रतिबिम्ब रूप हैं या स्वयं सूर्य सदृश बिम्ब रूप हैं | हे उधरण ! मैं क्या हूँ इसकी चिंता तुम छोड़ो | परमात्मा अवतार धारण किस रूप में करते हैं इसका कोई निश्चय नहीं हैं उपयुर्कत बताएं हुए गुणों में वह किसी भी रूप में हो सकता हैं | किन्तु यहाँ पर तुम मुझे दया धर्म की स्थापना करने वाले बाल ब्रह्रचारी रूप में ही समझो|

                  साभार : जम्भसागर

प्रकाशक: जाम्भाणी साहित्य अकादमी 
लेखक: स्वामी कृष्णानन्द आचार्य

श्री गुरु जम्भेश्वर शबदवाणी (शब्द 01) || Shri Guru Jambheshwar Shabadvani (Shabad 01) || Bishnoism

श्री गुरु जम्भेश्वर शबदवाणी (शब्द 01) || Shri Guru Jambheshwar Shabadvani (Shabad 01) || Bishnoism 




सात वर्ष की आयु में खेमनराय पुरोहित के प्रति यह प्रथम शब्दोच्चारण गुरू जम्भेश्वर जी ने किया


सबद 1- ओ3म् गुरु चीन्हों गुरु चीन्ह पुरोहित, गुरु मुख धर्म बखाणी।

भावार्थ- ओउम् यह परम पिता परमात्मा सर्वेश्वर अनादि निराकार भगवान विष्णु का ही परम प्रिय नाम है। नाम से ही नामी का ज्ञान होता है। सर्वप्रथम सृष्टि के आदि काल में तो वह परम सत्ता ओ3म् नाम से ही जानी जाती थी परन्तु आगे समयानुसार ही सत्ता  शिव, राम, विष्णु आदि नामों से जानी जाने लगी। उपनिषद् में कहा भी है - ओमिति एकाक्षर ब्रह्या  उद्गीथमुपासीत गीता में - ‘ओमित्येकाक्षर ब्रह्या  व्यवहारन् मामनुस्मरन्’ पातंजलि ने कहा- ‘तस्य वाचक प्रणवः’ इत्यादि निर्देश दिये गये हैं। ओ3म् का ध्वनि से उच्चारण किया जाता है तब वह परमात्मा अति प्रसन्न होता है क्योंकि वह परमात्मा का सर्वाधिक प्रिय नाम है, इसलिए शब्दों के प्रारम्भ में यह ओ3म् का पाठ देना उचित ही है। इससे मंगल स्तुति नमस्कारादि सभी नियमों का समुचित पालन हो जाता है। गुरु ‘श्री देवजी कहते हैं- हे संसार के लोगो! आप सभी लोग सर्वदा ही यदि अपना कल्याण चाहते हैं तो उस परमपिता परमात्मा परमेश्वर परम सत्ता ओ3म् नामी गुरु को पहचानो। यहां पर चिन्हो का अर्थ मानना या स्मरण करना नहीं है, यहां चिन्हो का अर्थ पहचान करना है। गुरु की पहचान कुछ सद्गुणों द्वारा ही हो सकती है वे गुण आगे बतलाये जाएंगे। हे पुरोहित! तू भी गुरु को पहचान तथा गुरुमुखी होकर सद्धर्म का उपदेश कर तथा मनमुखी धर्म का परित्याग कर, क्योंकि गुरुमुख से निकला हुआ वचन सदा धर्म की ओर ले जाने वाला ही होगा।

जो गुरु होयबा सहजे शीले नादे वेदे, तिहिं गुरु का आलिंकार पिछांणी। 

सहज स्वभाव से ही शील व्रतधारी, शब्द विद्या का ज्ञाता, अनहद नाद ध्वनि का श्रोता व सम्पूर्ण वेदों का ज्ञाता तथा वक्ता यदि गुरु है तो उस गुरु के ये गुण अलंकार ही होंगे। उन अलंकारों से विभूषित गुरु को पहचान कर लेना। वास्तव में इन विशेषणों से युक्त ही सद्गुरु हो सकता है इन गुणों के बिना सतगुरु होने की कल्पना नहीं की जा सकती।

छव दरसण जिहिं के रूपण थापण, संसार बरतण निज कर थरप्या सो गुरु प्रत्यक्ष जांणी।

 भारतीय आस्तिक ऋषियों द्वारा रचित न्याय, सांख्य, मीमांसा, वैशेषिक, योग, वेदान्त ये छः दर्शन जिस परमात्मा स्वरूप सद्गुरु के सम्बन्ध में अति विस्तार से वर्णन करते हैं। इन्हीं छः शास्त्रों मे जीव ईश्वर और जगत के बारे में अति सूक्ष्मता से वर्णन हुआ है। इस संसार रूपी घट बरतन को जिस सतगुरु रूपी परमात्मा ने अपने ही हाथों द्वारा बनाया है। उसी सतगुरु को हे पुरोहित! तू यहां पर प्रत्यक्ष देखकर पहचान।

जिहिं के खरतर गोठ निरोतर वाचा, रहिया र्रूद्र समाणी।

 जिस परमात्म स्वरूप गुरु के बारे में विचार करते हुए अच्छी-अच्छी विद्वानों की संगोष्ठियां भी चुप हो जाती है। अपनी सामथ्र्यनुसार विचार कर लेने के पश्चात वेद की ध्वनि का अनुसरण करती हुई ‘नेति-नेति’ कहते हुए मौन हो जाती है, क्योंकि परमात्मा वाणी का विषय नहीं है, अनुभव गम्य विषय को वाणी प्रगट नहीं कर सकती, क्योंकि वह परमात्मा र्रुद्र रूप से सर्वत्र समाया हुआ है। जिस प्रकार से शरीर में रूधिर समान रूप से सर्वत्र है उसी प्रकार से वह चेतन-ज्योति भी सर्वत्र सामान्य रूप से समायी हुई है। गुरु आप संतोषी अवरां पोखी, तंत महारस बाणी। गुरु आप तो स्वयं संतोषी हैं अर्थात् कभी किसी से कुछ भी लेने की इच्छा नहीं रखते, क्योंकि वह तो सम्पूर्ण जीवों का पालन-पोषण करने वाले हैं तथा जीवों के पास कुछ देने को भी नहीं है, केवल अहंकार ही अपनी निजी संपत्ति  है उसे हम समर्पण कर सकते हैं, यही सच्चा त्याग हो सकता है तथा सद्गुरु की वाणी तत्व को बतलाने वाली होती है और महारसीली मीठी वाणी से श्रोता को अमृत पान कराते हुए वे अजर-अमर कर देती है।

 के के अलिया बासण होत हुतासण, तामैं खीर दूहीजूं। 

इस विशाल संसार में कुछ लोग कच्चे मटके की तरह होते हैं, उसमें दूध, पानी नहीं रूक सकता अर्थात् जिनका अंतःकरण अभी मलीन है उनके उपर ज्ञान की बात असर नहीं करती किन्तु यही मटका जब अग्नि के संयोग से पक जाता है, तब उसमें दूध दूहा जा सकता है क्योंकि पकने के पश्चात् दूध ठहरने की योग्यता उस बर्तन में आ जाती है, ठीक उसी प्रकार से ही इस अमृतमय वाणी रूपी अग्नि का संयोग मूढ जनों के अंतःकरण से होगा तब वे भी मलिनता को दूर करके ज्ञान रूपी अमृत को धारण कर सकेंगे, इसलिए कहा है- ‘श्रोतव्य, मन्तव्य, निधिध् याषितव्य, दृष्टव्य’ श्रवण, मनन, निधिध्यासन करने से परमात्मा का दर्शन होता है।

रसूवन गोरस घीय न लीयूं, न तहां दूध न पाणी। 

दूध में से घृत निकाल लेने पर पीछे छाछ ही रह जाती है, न तो उसको आप दूध ही कह सकते और न ही उसे जल कह सकते। ठीक उसी प्रकार से ही मानव के अन्दर ‘रसो वै सः’ वह रसमय आत्म ज्योति है किन्तु उसका साक्षात्कार नहीं होता है तो मानव छाछ की तरह ही रसहीन है। न तो आप उसे अपने मूल स्वरूप स्वभाव में स्थित कह सकते क्योंकि वह तो स्वरूप को भूल चुका है और न ही उसे आप रस विहीन ही कह सकते क्योंकि उस आनन्द मय रस में तो वह ओत-प्रोत ही हैं। किन्तु वह रस उसे अब तक प्राप्त नहीं हुआ है, तो हम उसे गोरस ही कह सकते हैं। गुरु ध्याईरे ज्ञानी तोड़त मोहा, अति खुरसाणी छीजत लोहा। इसलिए ज्ञानी गुरु का ध्यान कर, वह तेरे मोह का बन्धन तोड़ देगा जिस प्रकार से खुरसाणी पत्थर कठोर लोहे के लगे हुए जंग रूपी मैल को काट देता है उसे शुह् पवित्र कर देता है ठीक उसी प्रकार से ही तुम्हारे जंग रूपी मोह को सत्गुरु ही काट सकते हैं।
पाणी छल तेरी खाल पखाला, सतगुरु तोड़े मन का साला।
 हे मानव तेरा पंच भौतिक शरीर चमड़े की बनी हुई पखाल की तरह ही है। क्योंकि उस चमड़े की पखाल में भी पानी भरा जाता है तथा ऊंट के पीठ पर लाद करके जब ले जाते हैं तो वह छलकती है। ठीक उसी प्रकार से भी तुम्हारा शरीर भी पानी से भरा हुआ है चलने पर यह भी छलकता है। जिस प्रकार से पखाल में छोटा छेद हो जाता है तो सम्पूर्ण जल निकल जाता है। उसी प्रकार से तुम्हारा शरीर भी फूट जायेगा तो पांचों तत्व स्वकीय स्वरूप में विलीन हो जायेंगे, यह देह मृत हो जायेगी। आत्मा अपने कर्मानुसार अन्य शरीर में गमन करेगी। मानसिक दुःख को सत्गुरु ही मिटा सकता है, तभी मानसिक दुःखों से सर्वदा निवृति हो जायेगी तो कायिक आदि दुःख तो स्वतः ही निवृत हो जाएंगे।

सतगुरु है तो सहज पिछाणी, विष्ण चरित बिन काचै करवै रह्यो न रहसी पांणी। 

हे पुरोहित! तुम्हारे सामने बैठा हुआ बालक यदि सत्गुरु है तो सहज ही में पहचान कर लेना। यहां पर सत्गुरु होने का बहुत बड़ा प्रमाण प्रस्तुत कर रहे हैं कि देख विष्णु चरित के बिना कच्चे घड़े में न तो कभी जल ठहरा और न ही कभी भविष्य में ठहर सकेगा किन्तु विष्णु चरित से तो असंभव भी संभव हो जाता है। कच्चे घड़े में जल ठहर जाना यह विष्णु चरित ही है। इस प्रकार से पुरोहित के प्रति गुरु जांभोजी ने बाल्यावस्था में यह प्रथम शब्द, गुरु महिमा से युक्त उच्चारण किया।

साभार-जंभसागर

द्वारा: स्वामी कृष्णानन्द जी 

प्रकाशक: जाम्भाणी साहित्य अकादमी 

शब्दवाणी विषयक विशेष बातें

शब्दवाणी विषयक विशेष बातें || श्री गुरु जम्भेश्वर शब्दवाणी
शब्दवाणी विषयक विशेष बातें

 शब्दवाणी विषयक विशेष बातें

श्री गुरु जम्भेश्वर भगवान के शब्द वैदिक मंत्रो के समान पुण्यकारक तथा प्रमाणभूत हैं अत: प्रत्येक बिश्नोई को श्री जम्भेश्वर भगवान के शब्दों का पाठ करना चाहिये। यदि हम २९ धर्मो (नियमों) को बिश्नोई धर्म का शारीर मानते हैं तो हमें शब्दों को बिश्नोई धर्म का प्राण मानना होगा। जिस प्रकार शरीर तथा प्राण दोनों की रक्षा अत्यंत आवश्यक हैं , उसी प्रकार बिश्नोई धर्म को सर्वांगपूर्ण तथा शुद्व रूप से मानने के लिए २९ नियम तथा शब्दवाणी अत्यंत आवश्यक हैं।



शब्दों से हवन करते अपना ध्यान हवन की ज्योति की ओर रखना चाहिये तथा ज्योति में ही जम्भेश्वर भगवान् के स्वरूप का ध्यान करना चाहिये। जो व्यक्ति जम्भेश्वर भगवान के शब्दों को ठीक ढंग से न बोलना जानता हो अथवा जिन व्यक्तियों को शब्द याद न हों, उन्हें मौन बैठकर शब्दवाणी का ध्यान पूर्वक पथ सुनना चाहिये तथा अपनी दृष्टि ज्योति की ओर रखनी चाहिये। जहाँ शब्दवाणी हो रहा हैं वहां पर किसी दुसरे विषय की बातचीत करना अथवा व्यर्थ इधर-उधर देखना पाप हैं शब्दवाणी  का पाठ एक स्थान पर बैठे हुए सभी व्यकियों को एक स्वर से तथा मिलकर करना चाहिये।


शब्दवाणी के प्रारंभ में "ओ३म्" शब्द का उच्चारण करना चाहिये, अंत में "ओ३म् स्वाहा" अथवा केवल "स्वाहा" शब्द का उच्चारण कर अग्नि में आहुति देनी चाहिये। हवन के निमित्त शुद्र के घर से अग्नि नहीं लेना चाहिये तथा मुख से फूंक नहीं देना चाहिये। हवन होते समय यदि कोई व्यक्ति अग्नि में आहुति देना चाहता हैं तो उसे ठीक ढंग से बैठकर आहुति देनी चाहिये। यदि कोई व्यक्ति किसी बुरे संग में पड़कर चोरी,डाके के कार्य करने लग गया हो अथवा बिड़ी, भांग ,शराब ,मांस आदि का सेवन करने लग गया हो तथा मन के कुछ अच्छे संस्कारों के कारण उपयुर्क्त कार्यों से घृणा हो तो उसे निश्चय मन से जम्भेश्वर भगवान का स्मरण कर अग्नि में आहुति देनी चाहिये तथा वहीं हवन के समीप बैठकर यह दृढ संकल्प कर लेना चाहिये कि मै आगे भविष्य में इन पाप कर्मो को कभी नहीं करूँगा।


गुरु जम्भेश्वर भगवान के जिन मंदिरों में प्रात: सांय दोनों समय हवन होता हैं वहां पर पहला शब्द "गुरु चिन्हों ........आदि, शुक्ल हंस तथा अन्य कम से कम दस, पन्द्रह या बीस शब्द बोलने चाहिये। इसी प्रकार जहाँ शुद्व घी की व्यवस्था कम हो वहां शुद्व कार्य के निमित्त प्राय: इतने ही शब्द बोलने चाहिये विशेष उत्सव ,मेला, और अमावस्या के दिन एक सौ बीस शब्द से हवन करना चाहिये तथा उस दिन भी शुक्ल हंस शब्द को अंतिम में बोलना चाहिये।


जिस प्रकार वेदों में कर्म काण्ड, उपासना काण्ड तथा ज्ञान काण्ड के भेद से तीन प्रकार के मन्त्र हैं उसी प्रकार जाम्भोजी की शब्दवाणी में भी तीन प्रकार के शब्द हैं हमें शब्दवाणी के द्वारा शुभ कर्म करने के उपदेश मिलते हैं श्री विष्णु भगवान का अनन्य मन से चिंतन करेंगे तो अवश्य विष्णु रूप होकर मुक्ति को प्राप्त होवेंगे यह संसार नाशवान तथा क्षणभंगुर हैं। अत: इससे किसी प्रकार मोह ,ममता राग -द्वेष आदि न करें श्री जम्भेश्वर भगवान् की वाणी को पूर्णयता पालन करने से हम अपना तथा जीवमात्र का कल्याण कर सकते हैं।

शब्दवाणी विषयक विशेष बातें || स्वामी भागीरथदास आचार्य
स्वामी भागीरथदास आचार्य